"गाँव / रणजीत" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |संग्रह=प्रतिनिधि कविताएँ / रणजीत }} {{KKCatKavita…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:00, 6 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
पूरे पन्द्रह बरस बाद
मैं अपने गाँव जा रहा हूँ
गाँव, जो कब का छूट चुका था
निकटस्थ कस्बे के लिए
और वह कस्बा छूट गया नौकरी के लिए
और अच्छी नौकरी की तलाश में
मैं कितनी दूर चला गया
पूरे पन्द्रह बरस बाद
फिर से अपनी जड़ें छूने जा रहा हूँ
पुष्ट और रक्ताभ ।
लाछूडा के बस-स्टैंड पर उतरते हैं हम दोनों
मैं और पिताजी
और चल पड़ते हैं मारवां के खेड़े में
अपनी छह बीघा ज़मीन की ओर
तीन मील चलकर एक सूखा तालाब आता है
पन्द्रह बरस बाद
मैं पूछता हूँ पिताजी से
रास्ते के एक पेड़ की पत्तियाँ छूकर
खेजड़े और बबूल का अन्तर
एक सफ़ेद चट्टान के पास पहुँचकर
पिताजी कहते हैं: यह है अपनी ज़मीन
न कुआँ, न तालाब, न नहर
सिंचाई के किसी भी साधन से हीन
वर्षा की कृपा पर निर्भर छह बीघा ज़मीन ।
और कहते-कहते
उनकी आँखें छलछला जाती हैं
झुक कर मिट्टी को हाथ लगाते हैं :
यह धरती माता है
जो कभी कुमाता नहीं होती
चाहे जितना कुपुत्र हो जाय उसका बेटा ।
पन्द्रह साल बाद मैं दौलतगढ़ के बस-स्टैंड पर उतरता हूं
और शुरू हो जाता है
गाँव के एक-एक आदमी से
मेरे परिचय का अटूट सिलसिला
'यह रणजीत है, मेरा सबसे बड़ा बेटा'
वे एक-एक व्यक्ति से उसकी
और उसके परिवार के एक-एक सदस्य की
कुशल-क्षेम पूछने के बाद कहते हैं
और वह कहता है : घणा दना में आया बापू
और मैं : हाँ, पूरे पन्द्रह बरस बाद !
बस में बता रहे थे पिताजी
'मेरी उम्र के बस दो ही लोग बचे हैं गाँव में
गजसिंग जी और नाथूसिंग जी
बाकी सब एक-एक कर चले गए'
गाँव में घुसते ही हमें समाचार मिलता है
नाथूसिंग जी भी पिछले दिनों चल बसे
उनके बेटे भँवरसिंग से मिलने हम लोग जाते हैं
स्थूलकाया और बड़ी बड़ी खिचड़ी मूँछें
यह मेरा सहपाठी था दूसरी या तीसरी कक्षा तक
मुझे बचपन की एक घटना याद आती है
छड़ी से पीटने वाले एक अध्यापक की छड़ी
दोपहर की छुट्टी में सभी लड़कों ने हाथ लगाकर
अर्थी की तरह उठाई
ताकि सबकी ज़िम्मेदारी रहे
और पास के कुएँ में डाल दी
अध्यापक ने बड़ी पूछताछ की
पर किसी ने कुछ न बताया
फिर पता नहीं कैसे
भंवरसिंग उनके सामने था
उन्होंने डपट कर उससे कहा :
'अपने दाता की सौगन्ध खा कर कहो
कि तुम्हें कुछ नहीं पता'
सबके हृदय काँपे, अब वह बता देगा
अपने पिताजी की झूठी सौगन्ध वह नहीं खाएगा
पर उसने खा ली ।
सबने शाँति की साँस ली ।
छुट्टी होने पर उससे पूछा :
तुमने दाता की सौगंध कैसे खा ली ?
हँस कर बोला :
दाता की नहीं दाँताँ की सौगन्ध खाई थी मैंने
ज़्यादा ही होगा तो दाँत साले टूट जाएँगे
एक दिन तो टूटने ही हैं ।
और हम लोग उसकी तुरत बुद्धि पर
खिलखिला कर हँस पड़े ।
वही भँवरसिंग मेरे सामने बैठा था
अपने मज़बूत दाँतों के साथ
पिता की मृत्यु के बाद भी
बहुत कुछ वैसा ही जीवन्त ।
'ये देवीलाल जी हैं, मेरे पुराने दोस्त
जब भी कभी आता हूँ, खाना ज़रूर खिलाते हैं'
- पिताजी बताते हैं ।
देवीलाल जी के तीन भाई और हैं
सिर्फ़ सबसे छोटे के एक लड़का है
दो क्वाँरे ही बूढ़े हो गए
ख़ुद देवीलाल जी की शादी हुई
पर कोई संतान नहीं
चार भाइयों पर एक ही लड़का
लाखों की सम्पत्ति है
सोचने लगता हूं कैसे वे दिन थे
लखपती महाजन कैसे क्वाँरे रह गए
कैसे कटा होगा इतना लम्बा जीवन
बिना बीवी-बच्चों के ।
जैन उपाश्रय के एक हिस्से में हम ठहरे हैं
बन्याग जी बापजी के रहने के कमरों में से एक में
आकर बैठ जाता है सोलानाथ जोगी
मैं अलसाया-सा लेटा हूँ
वह पिताजी से बातें कर रहा है :
'बड़े बेटे की औरत किसी के साथ चली गई
मूर्ख लड़का
दो हज़ार लेकर इस्टाम्प लिख दिया - छुट्टी !
आजकल कहीं दो हज़ार में लुगाई आती है ?'
'उन दो हज़ार का उसने क्या किया ?'
पूछते हैं पिताजी ।
'मुझे दिया, मैंने उनमें छोटे की शादी कर दी'
कहता है सोलानाथ :
'लड़ता था मुझसे
तो मैंने कहा :
तू तो भोग चुका दस साल
अब छोटे का भी तो इन्तजाम होना चाहिए।
क्यों बा सा ठीक है कि नहीं?'
और हामी भरते हैं बा सा
सोलानाथ कहता जाता है:
'मेरे पास दो हजार की भेड़े हैं
कहता हूँ उससे किसी मरे की लुगाई कबाड़ ले
भेड़ें मैं बेच दूँगा
पर वह चाहता है किसी जीवते की ले आए
और जीवते की दस से कम में मिलने की नहीं
कहाँ से लाऊँ मैं दस हज़ार इस अधबूढ़ के लिए'
कहता है सोलानाथ ।
शाम के खाने पर हमें धनसिंग ने बुलाया है
मेरे बचपन का दोस्त, लंगोटिया यार
वह और गजसिंग जी
मैं और पिताजी
चार जन हैं
वह पूछता है :
गिलास एक कि दो ?
इससे पहले कि मैं कुछ समझूँ
पिताजी दृढ़ता से कहते हैं - एक
एक ही थाली में खाया था सुबह का खाना भी
बहादुरमल के घर पर
मैंने और पिताजी ने
बाद में बताया उन्होंने
दो गिलास का मतलब होता
बाप-बेटे में कुछ दूरी है ।
दूसरी क्लास में बैठते थे
मैं और धनसिंग साथ-साथ
साथ-साथ टाँगे जाते थे स्कूल की खूँटियों पर
जब कभी पकड़ी जाती थीं शैतानियाँ
उन्हीं दिनों चला था
प्रजामंडल का राष्ट्रीय आन्दोलन
मैंने जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ़
लिखी थी एक छोटी-सी कविता
जिसमें 'अहिंसा की तलवार' उठाने का ज़िक्र था
इससे नाराज़ हो गए थे मुझसे
क्लास के सब राजपूत लड़के
और इसी चक्कर में मैंने एक बार
उठाकर दे मारा था अपने
सबसे पक्के दोस्त धनसिंग को ज़मीन पर
धनसिंग सामन्तवाद था मेरे बचपन का
और चाँदमल था राष्ट्रीय आन्दोलन
दोनों मेरे दोस्त थे
चाँदमल के साथ मैंने महात्मा बुद्ध की जीवनी पढ़कर
सत्य की खोज में
घर से भागने की योजना बनाई थी
पक्की और निश्चित ।
पर जब महाप्रयाण की घड़ी आई
चाँदमल पीछे हट गया
'हम तो यहीं खांड-खोपरा खाएँगे' वह बोला
और इस तरह
सत्यान्वेषण का मेरा वह अभियान
बीच में ही रह गया ।
बड़े ठंडेपन से मिला पर चाँदमल
हालाँकि वही एक दोस्त था
जिससे मैं पन्द्रह बरस पहले भी नहीं मिल सका था
यानी उससे मिला था मैं कोई पच्चीस बरस बाद ।
उसके कानों में बड़े-बड़े बाल उग आए थे
मकान उसने बढ़िया बनवा लिया था
और सौ तोले सोना दिया था अपनी बेटी के ब्याह में
पिताजी ने मुझे बताया
पर चाँदमल से मिलने का मुझे कोई मज़ा नहीं आया
उसने दूकान पर ही चाय पिला दी
घर पर भी नहीं बुलाया ।
कितने उत्फुल्ल हो उठे थे रघुवीरदान जी मास्टर साहब
मुझे अपने घर पहुँचा देखकर
मैंने उनके पैर छुए
और उन्होंने मुझे बाँहों में भर लिया
पैंतीस-सैंतीस बरस पहले के वे दिन
मेरी आँखों में घूम गए
जब वे रामायण की चौपाईयों के अर्थ करने की चुनौती
फेंकते थे अपने छात्रों पर
और मैं उसे कई बार स्वीकार करता था
दूसरी कक्षा का छात्र
शब्दों और उनके अर्थों के साथ
वह मेरी पहली मुठभेड़ थी
और वे केम्प-फ़ायर मुझे अब भी याद हैं
जिनमें अपनी डायरी से राष्ट्रीय गीत सुनाते थे
रघुवीरदान जी
बाज़ार भर में हमारे साथ घूमे
सबको बताते रहे
बा सा के ये लड़के
प्रोफ़ेसर हैं, इक्कीस सौ तनख़्वाह है
पन्द्रह सौ पत्नी भी पाती है
बचपन से ही बड़े तेज़ थे ।
शौच से लौटते हुए मिला धन्नादादा मोची
जिसकी दूकान पर मैं घंटों बैठा बैठा
देखता रहता था उसे जूते सिलते हुए
तले पर लेई लगाकर
चमड़े की छोटी-छोटी कतरने जमाते हुए
और बड़ा होकर
एक बहुत ही नायाब किस्म का जूता
बनाने की कल्पना करता था मैं ।
वह ज्यों का त्यों था
न रंग, न ढंग, न चाल
कुछ भी नहीं बदला था धन्ना का
हाँ, चेहरे पर सफ़ेदी छा गई थी
और उसका बेटा
गाँव के माध्यमिक स्कूल में मास्टर हो गया था ।
वह और भंवरलाल पुरोहित दो ही स्थानीय शिक्षक थे
दौलतगढ़ के स्कूल में
दोनों मेरे आने की सूचना पाकर
दोपहर में मिलने आए बन्याग जी के उपासरे में
भँवरलाल बताता रहा
कि किस तरह वह बचपन में
मेरी और मेरे दोस्त नरपत की बेलदारी किया करता था
हम लोग शिकार जाते तो वह बंदूक उठाता
घोड़ों को पानी पिलाने जाते तो वह साथ हो लेता
शरीर का मज़बूत था पर थोड़ा ठिगना
कह रहा था कि मैं तो मार्क्सवादी हूँ
शोषकों की बढ़ोतरी न हो, इसका ध्यान रखता हूँ
रेगरों का वह नोहरा
जिसे गाँव के बनिये चार हज़ार में ले रहे थे
सबने एकठ करली, कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा था
मैंने पाँच हज़ार में ख़रीद लिया ।
पिताजी ने मुझे बाद में बताया
भँवरलाल की पत्नी बड़ी सुन्दर थी
लम्बी और सुडौल
हीरालाल जी नौलखा का मकान बनाने
तिलौली से एक कारीगर आया यहाँ
उसी से उसके संबंध हो गए
और पुरोहितों की बहू
चली गई उसी कारीगर के साथ
अब उनके बच्चे हैं
और भँवरलाल बिचारे को
दूसरी शादी करनी पड़ी ।
'ओक्खो ! कमला बाई, आप कब आईं ?'
पिताजी की ऊँची आवाज़ गूँजी
मैंने उसकी तरफ़ देखा
झकाझक पीले कपड़ों में एक गोरा चेहरा
कुछ उम्र की, कुछ अनुभव की झाइयाँ
पचास तोला सोना मिला था, इसे भी शादी में
पिताजी ने बाद में बताया
'कैसी हो ससुराल में
कुछ बाल-बच्चे हैं कि नहीं ?' उन्होंने पूछा
पास खड़े उसके ममेरे भाई ने बताया -
'नहीं कुछ नहीं है ।'
'अच्छा, भगवान की माया ।
यह रणजीत है, मेरा सबसे बड़ा बेटा'
'हाँ, मैं पहचान गई'
अपनाव भरे स्वर में बोली कमलाबाई
बचपन में साथ-साथ पढ़ती थी
खेलती थी
तलाई पर कपड़े धोने आई थी एक दिन
बहुत बतियाती रही
नहाकर नेकर निचोड़ने लगा मैं
तो 'ला मैं धो देती हूँ' कहकर
साबुन लगा धो दिया
बड़ा अच्छा लगा था
आज उसे देख एक फुरहरी-भरा दयाभाव
तन-मन पर छा गया
इतना सुन्दर-सुडौल तन
और इस कदर सूनी कोख ।
चरनसिंग जी की हवेली पर खाना है आज का
गाँवभर में खोज कर लाए एक बकरा
रावलू के काकोशा दलेलसिंग जी के मझले बेटे
एक समय उनकी गज़ब की धाक थी
ठिकाने के बारह गाँवों पर
बड़े दबंग ठाकुर थे
पर बेटों ने बड़ी जल्दी बदलते हुए ज़माने से
समायोजन कर लिया
बडे़ किशनसिंग जी
आ गए राजनीति में, एम०एल०ए० हो गए
मझले चरनसिंग ने
सामन्ती-शान की परवाह छोड़
ड्राइवर की नौकरी की
कई पापड़ बेले
अब बेटे सब लगे हैं किसी न किसी काम में
पिछले दिनों पोता हुआ
अमल-पताशा किया था उसका
तब पिताजी को बुलाया था
बड़ा यारबाज़ है
स्नेहिल जीव है
आधा गिलास गुड़ की कच्ची चढ़ाकर
रंग में आ गए बा सा
सुनाने लगे दौलतगढ़ में अपने
शुरू के दिनों की कहानियाँ :
'चौरानमें में इसका जन्म हुआ था कटार में
पच्च्यानमें में हमने दौलतगढ़ में दूकान कर ली
चालीस घर ठाकुरों के थे
इकतालीसवाँ मेरा
लेन में-देन में, शादी में-ब्याह में
होली-दीवाली पर
मेरे घर को ठाकुरों के घरों के साथ ही गिना जाता
यही नहीं, गाँव के महाजन भी
अपने सौ परिवारों में जोड़ते थे
मेरा एक सौ एकवाँ परिवार
सब सामाजिक कामों में ।'
बता रहे थे पिताजी
कि चरनसिंग दादोसा ने एक घूँट भर कर पूछा :
रणजीत की बीनणी कैसी है ?
'साक्षात देवी है, बड़े अच्छे भाग हैं मेरे'
सुरूर में थे बा सा
'एक दिन की बात बताऊँ आपको बापू
रणजीत के जूतों पर पालिश की तो
मेरी भी कीचड़ भरी जूतियाँ चमका दीं
आप ही सोचिए
मैं पाँचवीं फेल
और बहू एम०ए० पी-एच०डी०
ज़रा भी अभिमान नहीं
मेरी जूतियों पर पालिश कर दी ।
कितना भाग्यवान् हूँ मैं
आप ही बताएँ चरनसिंग जी !'
'क्या कहने, क्या कहने !'
झूम उठे चरनसिंग !