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सदस्य आगत शुक्ल 8020 द्वारा प्रेषित
 
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कविता कोश के लिए डाटा
 
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     '''नाम माधव शुक्ल‘मनोज’'''उपनाम मनोज
 
     '''नाम माधव शुक्ल‘मनोज’'''उपनाम मनोज
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     राष्ट्रीयता         भारतीय
 
     राष्ट्रीयता         भारतीय
 
     भाषा  हिन्दी
 
     भाषा  हिन्दी
     बोली बुन्देली
+
     बोली   बुन्देली
 
     काल         आधुनिक काल
 
     काल         आधुनिक काल
 
     विधा         हिन्दी और बुन्देली कविता, डायरी लेखन
 
     विधा         हिन्दी और बुन्देली कविता, डायरी लेखन
     विषय ग्राम्य जीवन,
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     विषय   ग्राम्य जीवन
 
     साहित्यक         जीवन की मौलिक अभिव्यक्ति
 
     साहित्यक         जीवन की मौलिक अभिव्यक्ति
 
     आन्दोलन         राष्ट्रीय एकता सद्भावना यात्रा
 
     आन्दोलन         राष्ट्रीय एकता सद्भावना यात्रा
 
     प्रमुख कृतियां एक नदी कण्ठी-सी  
 
     प्रमुख कृतियां एक नदी कण्ठी-सी  
 
 
                 नीला बिरछा,धुनकी  
 
                 नीला बिरछा,धुनकी  
 
                 टूटे हुए लोगों के नगर में  
 
                 टूटे हुए लोगों के नगर में  
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'''बुन्देली कविता'''
 
'''बुन्देली कविता'''
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1 मामुलिया, -नीला बिरछा, माधव शुक्ल‘मनोज‘
 
1 मामुलिया, -नीला बिरछा, माधव शुक्ल‘मनोज‘
  
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8 एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया,- माधव शुक्ल‘मनोज‘
 
8 एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया,- माधव शुक्ल‘मनोज‘
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9 छोटी सी नाव चले, -माधव शुक्ल‘मनोज‘
 
9 छोटी सी नाव चले, -माधव शुक्ल‘मनोज‘
  
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13 इबारत आदमी की, -टूटे हुए लोगों के नगर में, माधव शुक्ल‘मनोज‘
 
13 इबारत आदमी की, -टूटे हुए लोगों के नगर में, माधव शुक्ल‘मनोज‘
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14 गंध के पहाड़
 
14 गंध के पहाड़
  
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कब सें देखू बाट पिया की लौट अबहु नहिं आये रे
 
कब सें देखू बाट पिया की लौट अबहु नहिं आये रे
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झर गई चंपा, झर गई बेला, झर गये फूल कनेरा रे।
 
झर गई चंपा, झर गई बेला, झर गये फूल कनेरा रे।
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राह देखती, बाट जोहती
 
राह देखती, बाट जोहती
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देखू कौन डगरिया रे।
 
देखू कौन डगरिया रे।
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फरर-फरर पुरवैया बैरिन
 
फरर-फरर पुरवैया बैरिन
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खींचे रोज चुनरिया रे।
 
खींचे रोज चुनरिया रे।
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पोरा गिनगिन तडपूं तुम बिन
 
पोरा गिनगिन तडपूं तुम बिन
 
सूनी सेज सिजरिया रे।
 
सूनी सेज सिजरिया रे।
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नहीं सुहावे पनघट कुईया
 
नहीं सुहावे पनघट कुईया
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भरी न जाय गगरिया रे।
 
भरी न जाय गगरिया रे।
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कटे न काटे कटतीं रतिया
 
कटे न काटे कटतीं रतिया
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दूभर हो गई बिंदिया रे।
 
दूभर हो गई बिंदिया रे।
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3 <poem>हीरा बीनें कीरा</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज
 
3 <poem>हीरा बीनें कीरा</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज
  
 
हीरा बीनें कीरा मुकुन्दी बीनें बेर
 
हीरा बीनें कीरा मुकुन्दी बीनें बेर
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झुरझुरी को काटों लग गओ-
 
झुरझुरी को काटों लग गओ-
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स्ब बगर गये बेर
 
स्ब बगर गये बेर
  
 
कैसो आ गओ, अरे जमानो
 
कैसो आ गओ, अरे जमानो
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हीरा हो गये कीरा।
 
हीरा हो गये कीरा।
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मणि माला में आज मुकुन्दी
 
मणि माला में आज मुकुन्दी
 
हो गये मिरचा-जीरा।
 
हो गये मिरचा-जीरा।
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स्वारथ की धूनी पे जा कें
 
स्वारथ की धूनी पे जा कें
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हो गए सब बमभोला
 
हो गए सब बमभोला
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महनत को सब आज पसीना
 
महनत को सब आज पसीना
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हो रओ कोकाकोला।
 
हो रओ कोकाकोला।
  
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खटपट सब बंद हुई, सूनसन गलियां।
 
खटपट सब बंद हुई, सूनसन गलियां।
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गुमसुम है कांटों में, आशा की कलियां
 
गुमसुम है कांटों में, आशा की कलियां
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पुरबा की लोरियां, सुगन्ध भरी थपकी।
 
पुरबा की लोरियां, सुगन्ध भरी थपकी।
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अंखियन में धीरे से निंदिया ले मंहकी।
 
अंखियन में धीरे से निंदिया ले मंहकी।
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सुधबुघ सब भूल गई रतियों में देहिरा-
 
सुधबुघ सब भूल गई रतियों में देहिरा-
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धरती की सेजों में सपनों में अटकी बात।
 
धरती की सेजों में सपनों में अटकी बात।
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बेला फूले आधी रात।
 
बेला फूले आधी रात।
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धीरे से डूब गई चंदा की चांदनी।
 
धीरे से डूब गई चंदा की चांदनी।
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फीकी सी बिखरी है तारों की रोशनी
 
फीकी सी बिखरी है तारों की रोशनी
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गोरी सी बेला की दूध भरी पांखुरी।
 
गोरी सी बेला की दूध भरी पांखुरी।
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जीवन में जीने की फूंक रही बांसुरी।
 
जीवन में जीने की फूंक रही बांसुरी।
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सिरहाने दियला रख, जाग रही घड़कन-
 
सिरहाने दियला रख, जाग रही घड़कन-
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करवट ले हाथ की बजाती है चुटकी रात।
 
करवट ले हाथ की बजाती है चुटकी रात।
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बेला फूले आधी रात।
 
बेला फूले आधी रात।
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दूर अभी पूरब में भोर का सितारा।
 
दूर अभी पूरब में भोर का सितारा।
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नदिया का घाट और चुप है किनारा।
 
नदिया का घाट और चुप है किनारा।
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नाले किनारे है टीटई का पहरा।
 
नाले किनारे है टीटई का पहरा।
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अम्बर का धरती पर अंधियारा गहरा।
 
अम्बर का धरती पर अंधियारा गहरा।
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चिड़ियों का मीठा सा नीड़ों में बंद गीत-
 
चिड़ियों का मीठा सा नीड़ों में बंद गीत-
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स्वर साधे बैठा है, मन में गीतों का प्रात।
 
स्वर साधे बैठा है, मन में गीतों का प्रात।
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बेला फूले आधी रात...
 
बेला फूले आधी रात...
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5 <poem>मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल मनोज  
 
5 <poem>मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे</poem>-नीला बिरछा,माधव शुक्ल मनोज  
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मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
 
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
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मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
 
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
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ढ़पला-रमतूला संग बांसुरियां कूक उठी
 
ढ़पला-रमतूला संग बांसुरियां कूक उठी
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पीलेे से मधुबन में शाखायें पीक उठी।
 
पीलेे से मधुबन में शाखायें पीक उठी।
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मीठी सुगन्ध भरे महुआ के झौर झरे।
 
मीठी सुगन्ध भरे महुआ के झौर झरे।
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अमवा की अमियों में बैशाखी गीत भरे।
 
अमवा की अमियों में बैशाखी गीत भरे।
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छोटे से गांव में भुनसारे, दिन डूबे-
 
छोटे से गांव में भुनसारे, दिन डूबे-
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खेतों खलियानों में गूेहूं के साज सजे
 
खेतों खलियानों में गूेहूं के साज सजे
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मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।
 
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।
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ऊमर की बात नयी,शहतूती बोल नये।
 
ऊमर की बात नयी,शहतूती बोल नये।
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बेरी के मुरचन में मीठा रस घोल गये।
 
बेरी के मुरचन में मीठा रस घोल गये।
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भिलमा की आंखों में टेसू का रंग भरा।
 
भिलमा की आंखों में टेसू का रंग भरा।
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काठ के कठौता में सतुआ का स्वाद घुरा
 
काठ के कठौता में सतुआ का स्वाद घुरा
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घी चुपड़ी गांकर में दुपहर की भूख बुझी-
 
घी चुपड़ी गांकर में दुपहर की भूख बुझी-
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माटी के ढ़िमलों पर जीवन के गीत गुंजे।
 
माटी के ढ़िमलों पर जीवन के गीत गुंजे।
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मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
 
मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।
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इमली की फलियों खनकीं पक कुक करके।
 
इमली की फलियों खनकीं पक कुक करके।
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फल निकले पीपल के पतझर में उठ करके।
 
फल निकले पीपल के पतझर में उठ करके।
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ऐसे ही गांवन के जीवन में रस छलका।
 
ऐसे ही गांवन के जीवन में रस छलका।
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फसलों की रानी, जब करती है मन हलका।
 
फसलों की रानी, जब करती है मन हलका।
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टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में-
 
टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में-
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थोड़ी सी मस्ती में सबके दुख-दर्द लजे।
 
थोड़ी सी मस्ती में सबके दुख-दर्द लजे।
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मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे।
 
मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे।
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हिन्दी कविता
 
हिन्दी कविता
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6 <poem>कब से यूं भटक रहे भूले से शा शाहर में</poem>-जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
 
6 <poem>कब से यूं भटक रहे भूले से शा शाहर में</poem>-जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
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कब से यूं भटक रहे
 
कब से यूं भटक रहे
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भूले से शहर में
 
भूले से शहर में
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जहां नहीं मिलता है, एक टुकड़ा धूप का
 
जहां नहीं मिलता है, एक टुकड़ा धूप का
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खिला हुआ फूल और थोड़ी सी चांदनी-
 
खिला हुआ फूल और थोड़ी सी चांदनी-
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बांह भरे इन्द्र धनुष।
 
बांह भरे इन्द्र धनुष।
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मिलतीं हैं-साजिशें,अपनी ही डगर में।
 
मिलतीं हैं-साजिशें,अपनी ही डगर में।
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कब से यूं भटक रहे, भूले से शहर में।
 
कब से यूं भटक रहे, भूले से शहर में।
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कोलाहल उठता है,दूकानें चलती हैं
 
कोलाहल उठता है,दूकानें चलती हैं
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हिसाबों की गलियों में,जोड़-तोड़ बाकी है-
 
हिसाबों की गलियों में,जोड़-तोड़ बाकी है-
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लगी हुई झांकी है।
 
लगी हुई झांकी है।
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जीवन की रसधारा@घुलती है जहर में।
 
जीवन की रसधारा@घुलती है जहर में।
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कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
 
कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
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कौन कहां जाता,समझ नहीं आता है
 
कौन कहां जाता,समझ नहीं आता है
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चैराहे पर जीवन,धुंए के बादल सा-
 
चैराहे पर जीवन,धुंए के बादल सा-
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एक पवन-झोंके सा।
 
एक पवन-झोंके सा।
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दिखता है सब कुछ पर, धुंधली सी नजर मेंं
 
दिखता है सब कुछ पर, धुंधली सी नजर मेंं
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कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
 
कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।
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कहा नही जाता है,सहा नहीं जाता है
 
कहा नही जाता है,सहा नहीं जाता है
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बोलूं तो क्या बोलूं,खिड़की से से देखता हूं
 
बोलूं तो क्या बोलूं,खिड़की से से देखता हूं
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रेत का समुन्दर है।
 
रेत का समुन्दर है।
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पानी पर नाव कभी,चल देगी लहर में।
 
पानी पर नाव कभी,चल देगी लहर में।
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कब से यूं भटक रहे,कागज के ‘ाहर में।
 
कब से यूं भटक रहे,कागज के ‘ाहर में।
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7 <poem>हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है</poem>,- जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
 
7 <poem>हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है</poem>,- जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज
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हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है
 
हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है
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तुझे लगा है गहरा काटा
 
तुझे लगा है गहरा काटा
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फिर भी मुस्काती-है
 
फिर भी मुस्काती-है
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दुख-दर्दां के बेटों को तू
 
दुख-दर्दां के बेटों को तू
 +
 
लोरी गाती है।
 
लोरी गाती है।
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रोना कोई देख न ले
 
रोना कोई देख न ले
 +
 
चुपके से रोती है
 
चुपके से रोती है
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हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
 
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
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बुझा दिया अपने नसीब का
 
बुझा दिया अपने नसीब का
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तू सुलकागी है
 
तू सुलकागी है
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अंधकार के घर में बैठी ज्याति जलाती है
 
अंधकार के घर में बैठी ज्याति जलाती है
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धीरज बांध लिया आंचल जब
 
धीरज बांध लिया आंचल जब
 +
 
बेचैनी होती है।
 
बेचैनी होती है।
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हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
 
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
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नदी हो गई जब रेतीली
 
नदी हो गई जब रेतीली
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तू हो मटमैली।
 
तू हो मटमैली।
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आकाशी घनघोर घटायें
 
आकाशी घनघोर घटायें
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लेकर तू-फैली।
 
लेकर तू-फैली।
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किसी घाट पर आंसू से तू
 
किसी घाट पर आंसू से तू
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सपनों को धोती है।
 
सपनों को धोती है।
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हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
 
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
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चट्टानी है तेरा सीना  
 
चट्टानी है तेरा सीना  
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सब सह जाती है
 
सब सह जाती है
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मन मसोस कर अरी जिन्दगी
 
मन मसोस कर अरी जिन्दगी
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तू रह जाती है।
 
तू रह जाती है।
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सिर पर गुजर बसर का बोझाा
 
सिर पर गुजर बसर का बोझाा
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निशदिन तू ढोती है।
 
निशदिन तू ढोती है।
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हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
 
हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
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तू सरज संग चली और फिर
 
तू सरज संग चली और फिर
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दिन भर चलती है।
 
दिन भर चलती है।
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तेरी ही आंखों में हर दिन
 
तेरी ही आंखों में हर दिन
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संध्या ढ़लती है।
 
संध्या ढ़लती है।
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सूरज पहिन लिया माथे पर
 
सूरज पहिन लिया माथे पर
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चंदा सा मोती है।
 
चंदा सा मोती है।
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हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
 
हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।
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8 <poem>एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया</poem>-माधव शुक्ल मनोज
 
8 <poem>एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया</poem>-माधव शुक्ल मनोज
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9 गांव की भोर-नीला बिरछा, माधव शुक्ल मनोज
 
9 गांव की भोर-नीला बिरछा, माधव शुक्ल मनोज
 +
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चक्की के पाटों का राग उठा, घरर-धरर।
 
चक्की के पाटों का राग उठा, घरर-धरर।
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माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर।
 
माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर।
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चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रहीं गैया।
 
चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रहीं गैया।
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चक्की चलाय गोरी गायें झूम रैया।
 
चक्की चलाय गोरी गायें झूम रैया।
 +
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छिप गई बादर की नन्हीं तरैया।
 
छिप गई बादर की नन्हीं तरैया।
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झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया।
 
झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया।
 +
 
चहक उठीं नाच उठी डाल पर चिरैया।
 
चहक उठीं नाच उठी डाल पर चिरैया।
 +
 
सूरज को चूम उठीं किरणों की बैयां।
 
सूरज को चूम उठीं किरणों की बैयां।
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बेल उठे घर-घर के नन्हें कन्हैया।
 
बेल उठे घर-घर के नन्हें कन्हैया।
 +
 
भोर भई, भोर भई, देखो री मैया।
 
भोर भई, भोर भई, देखो री मैया।
 +
 
घूंघट संभाल उठी घर की दुलहनिया।
 
घूंघट संभाल उठी घर की दुलहनिया।
 +
 
बाज उठी पांवों की छम-छम पैजनियां।
 
बाज उठी पांवों की छम-छम पैजनियां।
 +
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पनघट की गलियों में झनक उठी चूड़िया।
 
पनघट की गलियों में झनक उठी चूड़िया।
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गागरिया चूम उठी लहरों की सीढ़िया।
 
गागरिया चूम उठी लहरों की सीढ़िया।
 +
 
गागरिया शीश घरे पनहारिन ठुमक चली।
 
गागरिया शीश घरे पनहारिन ठुमक चली।
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गांव की भोर काम काजों में महक चली।
 
गांव की भोर काम काजों में महक चली।
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नाजुक सी छोरी बुहार चली आंगन।
 
नाजुक सी छोरी बुहार चली आंगन।
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गडु़आ में दूध दुहे घर की सुहागिन।
 
गडु़आ में दूध दुहे घर की सुहागिन।
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गोरस की मटकी में गाये मथानी।
 
गोरस की मटकी में गाये मथानी।
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गांव के जीवन की भोली कहानी।
 
गांव के जीवन की भोली कहानी।
 +
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महनत की दुनिया के सैयां रसीले
 
महनत की दुनिया के सैयां रसीले
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अपनी जो घुन में हैं बड़े नशीले।
 
अपनी जो घुन में हैं बड़े नशीले।
 +
 
चूम रहे बार-बार बैलों के मुखड़े।
 
चूम रहे बार-बार बैलों के मुखड़े।
 +
 
भूल गये कल के जो अनहोने दुखड़े।
 
भूल गये कल के जो अनहोने दुखड़े।
 +
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10 <poem>वह छोटा सा गांव</poem> -नीला बिरछाए भोर के साथी,माधव शुक्ल मनोज
 
10 <poem>वह छोटा सा गांव</poem> -नीला बिरछाए भोर के साथी,माधव शुक्ल मनोज
 +
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वह छोटा सा गांव है
 
वह छोटा सा गांव है
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नदिया के उस पार बसा रे
 
नदिया के उस पार बसा रे
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वह छोटा-सा गांव है,
 
वह छोटा-सा गांव है,
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जहां-तहां टूटे छप्पर है
 
जहां-तहां टूटे छप्पर है
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माटी की दीवार है।
 
माटी की दीवार है।
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जांता चक्की ओखल मूसल
 
जांता चक्की ओखल मूसल
 +
 
सीके टंगे मियार है,
 
सीके टंगे मियार है,
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चिथड़ों से वह लदी अरगनी-
 
चिथड़ों से वह लदी अरगनी-
 +
 
बेड़ा भीतर द्वार है।
 
बेड़ा भीतर द्वार है।
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हड़िया कुठिया और कठौता
 
हड़िया कुठिया और कठौता
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रस्सी ओंगन चाक हैं
 
रस्सी ओंगन चाक हैं
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कंडा लकड़ी भरा मचेरा-
 
कंडा लकड़ी भरा मचेरा-
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पौरों में अंधियार है।
 
पौरों में अंधियार है।
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 +
  
 
खुटियों पर लटके हल बक्खर
 
खुटियों पर लटके हल बक्खर
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फूटे बर्तन, खाट हैं,
 
फूटे बर्तन, खाट हैं,
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हंसिया खुरपी गाड़ी-बैलों-
 
हंसिया खुरपी गाड़ी-बैलों-
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से पूरित घरबार है।
 
से पूरित घरबार है।
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छुई से पुत द्वार के खम्बे
 
छुई से पुत द्वार के खम्बे
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झुकी-झुकी दालान है
 
झुकी-झुकी दालान है
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घर की एक पुतरिया स ीवह
 
घर की एक पुतरिया स ीवह
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घूंघट डाले नार है।
 
घूंघट डाले नार है।
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पिछवाडे़ बाड़ी गौशाला
 
पिछवाडे़ बाड़ी गौशाला
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अगल-बगल गलयार हैं
 
अगल-बगल गलयार हैं
 +
 
आंगन में पीपल का बिरछा-
 
आंगन में पीपल का बिरछा-
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परिजन पहरेदार हैं।
 
परिजन पहरेदार हैं।
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नंग-धुरग बच्चों के वे
 
नंग-धुरग बच्चों के वे
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तिल्ली वाले पेट हैं
 
तिल्ली वाले पेट हैं
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सूखी सी रोटी से जिनको-
 
सूखी सी रोटी से जिनको-
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मिलता रहा दुलार है।
 
मिलता रहा दुलार है।
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गांव के भईया भोले-भाले
 
गांव के भईया भोले-भाले
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खेतों के सिरताज हैं,
 
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जिनका घिरा हुआ जंगल में
 
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छोटा सा संसार है।
 
छोटा सा संसार है।
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11 <poem>एक नदी कंण्ठी सी</poem>-एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज
 
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एक नदी कण्ठी सी
 
एक नदी कण्ठी सी
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मटमैली मेड़ पर
 
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पगडन्डी धूल पर
 
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 +
 
उस सूरज के घर
 
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एक ताल सोने का
 
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एक नदी कन्ठी सी।
 
एक नदी कन्ठी सी।
 +
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एक गांव बहुत प्यारा है
 
एक गांव बहुत प्यारा है
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सूरज के घर का
 
सूरज के घर का
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सबसे छोटा बेटा है
 
सबसे छोटा बेटा है
 +
 
गेहूं की बालों का
 
गेहूं की बालों का
 +
 
मेहनती छोरा है
 
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 +
 
जो नदिया को हेर-घेर
 
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कन्ठी सा पहिने है।
 
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जिसकी गोरी ने
 
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एक ताल सोने का
 
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जो सुबह-सुबह छलका है
 
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अपनी गागर भर
 
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सिर पर बिंदिया सा पहिना है।
 
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12 <poem>चिल्लाता है जनमन</poem>..-टूटे हुए लोगांे के नगर में!एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज
 
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चिल्लाता है जनमन
 
चिल्लाता है जनमन
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हरि गुमसुम है, आसमान में,  
 
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 +
 
चिल्लाता है जनमन
 
चिल्लाता है जनमन
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भेद आदमी ने बोया है
 
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 +
 
बटवारा है मन का
 
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 +
 
स्वार्थ सिद्धियां उगती आती
 
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 +
 
अनाचार हर दिन का
 
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 +
 
हुई भावना गन्दी,नाली गंध उड़ी जहरीली-
 
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फंसा हुआ है कीड़ों जैसा किल्लाता है जनमन
 
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 +
 
हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।
 
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 +
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महलों में इन्सान बड़ा हो
 
महलों में इन्सान बड़ा हो
 +
 
खाता लड्डू-पूड़ी
 
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झोपड़ियों में पड़ी गरीबी
 
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 +
 
तप चढ़ी है-जूड़ी
 
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 +
 
मरे देश या मानवता भी अपने सुख के खातिर-
 
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 +
 
तिरस्कार से नीचे लेटा कुन्नाता है जनमन।
 
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हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।
 
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सेवा का है मूल्य धृणा से
 
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कैसी अद्भुत लीला।
 
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असहायों के सिर के ऊपर  
 
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 +
 
गढ़ा हुआ है कीला।
 
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सभा-भाषणों के द्धारा आदर्श बघारा जाता-
 
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 +
 
‘ााला की बजती घंटी सा झन्नाता है-जनमन।
 
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हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।
 
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13 <poem>इबारत आदमी की</poem>-टूटे हुए लोगों के नगर में,माधव शुक्ल मनोज
 
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इबारत आदमी की
 
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जीने का सवाल हल करते-करते
 
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 +
 
जिन्दगी का उत्तर गलत हो जाता है
 
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गुजर-बसर का सूत्र
 
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 +
 
वर्तमान का गुणा-भाग
 
वर्तमान का गुणा-भाग
 +
 
भविष्य का जोड़-बाकी
 
भविष्य का जोड़-बाकी
 +
 
एक बिन्दु पर रह जाता है
 
एक बिन्दु पर रह जाता है
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निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं
 
निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं
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आदमी बिना भाव के बिक जाता है।
 
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सवालों के ढेर के ढेर
 
सवालों के ढेर के ढेर
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नये-नये माप-तौल
 
नये-नये माप-तौल
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मंहगाई की नयी परिभाषा-
 
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गेहूं और पेट्रोल।
 
गेहूं और पेट्रोल।
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किलो और मीटर में
 
किलो और मीटर में
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पानी और आग का सवाल
 
पानी और आग का सवाल
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सवाल इबारत में बंध कर
 
सवाल इबारत में बंध कर
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किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।
 
किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।
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हाय रे, सवाल के साथ-साथ
 
हाय रे, सवाल के साथ-साथ
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अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी
 
अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी
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वृक्ष के नीचे
 
वृक्ष के नीचे
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पक कर टपक जाता है।
 
पक कर टपक जाता है।
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उसका पूरा समय
 
उसका पूरा समय
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एक कोने में
 
एक कोने में
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लाठी की तरह टिक जाता है।
 
लाठी की तरह टिक जाता है।
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14 <poem>गंध के पहाड़</poem>
 
14 <poem>गंध के पहाड़</poem>
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दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन
 
दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन
 +
 
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
 
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
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स्वाथों ने पहिनी है
 
स्वाथों ने पहिनी है
 +
 
सूरज की रोशनी
 
सूरज की रोशनी
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सम्यता ने डाली दिखावे की ओढ़नी।
 
सम्यता ने डाली दिखावे की ओढ़नी।
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पथहारे खोज रहे जीने की छांह-
 
पथहारे खोज रहे जीने की छांह-
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बबूल बने बैठे हैं-आमों के झाड़।
 
बबूल बने बैठे हैं-आमों के झाड़।
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उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
 
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।
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असत्य खुश है किन्तु
 
असत्य खुश है किन्तु
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आज सत्य अनमना
 
आज सत्य अनमना
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पतित को कहा गया
 
पतित को कहा गया
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ये हैं’-महामना
 
ये हैं’-महामना
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अपने ही घर में अभिनय का जोर है
 
अपने ही घर में अभिनय का जोर है
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आंगन में शोर, सभी बन्द हैं किवा़ड़।।
 
आंगन में शोर, सभी बन्द हैं किवा़ड़।।
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उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।।
 
उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।।
 +
 +
  
 
कह रहा मनुष्य ही
 
कह रहा मनुष्य ही
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मनुष्य को खराब।
 
मनुष्य को खराब।
 +
 
छिपी हुई है भावना
 
छिपी हुई है भावना
 +
 
पिये हुए शराब।
 
पिये हुए शराब।
 +
 
आदर्श को लपेट कर, महक रही है रात-
 
आदर्श को लपेट कर, महक रही है रात-
 +
 
मनुष्य अब मनुष्य को ही दे रहा पछाड़।।
 
मनुष्य अब मनुष्य को ही दे रहा पछाड़।।
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उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।।
 
उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।।
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दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन-
 
दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन-
 +
 
उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।
 
उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।

23:35, 13 जुलाई 2011 का अवतरण

सदस्य:Agat shukla सदस्य आगत शुक्ल 8020 द्वारा प्रेषित कविता कोश के लिए डाटा

   नाम 		माधव शुक्ल‘मनोज’उपनाम		मनोज
   जन्म		        1 अक्टूबर 1930 सागर,मध्यप्रदेश, भारत
   कार्यक्षेत्र		अध्यापक, कवि, लेखक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी 
   राष्ट्रीयता	        भारतीय
   भाषा  		हिन्दी
   बोली 		   बुन्देली
   काल		        आधुनिक काल
   विधा		        हिन्दी और बुन्देली कविता, डायरी लेखन
   विषय		   ग्राम्य जीवन
   साहित्यक	        जीवन की मौलिक अभिव्यक्ति
   आन्दोलन	        राष्ट्रीय एकता सद्भावना यात्रा
   प्रमुख कृतियां	एक नदी कण्ठी-सी 
               नीला बिरछा,धुनकी 
               टूटे हुए लोगों के नगर में 
               जिन्दगी चन्दन बोती है
               जब रास्ता चैराहा पहन लेता है 
               मैं तुम सब
    इनसे प्रभावित	    सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धूमिल, केदारनाथ सिंह,
    समकालीन	    हरिवंशरायबच्चन, बालकृष्ण शार्मा नवीन, सोहनलाल द्धिवेदी, नार्गाजुन, त्रिलोचन शास्त्री, बशीर बद्र
    हस्ताक्षर

सी-13, सेक्टर-1, अवन्ति विहार, रायपुर

माधव शुक्ल मनोज

बुन्देली एवं हिन्दी के सुपरिचित कवि-लेखक। लोक कलाओं में गहरी अभिरुचि। राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक। बुन्देलखण्ड के लोक नृत्य राई पर शोधात्मक कार्य लेखन। प्रकाशित मोनोग्राफ।म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद के मनोनीत कार्यकारिणी समिति के पूर्व सदस्य। सन् 1942 के स्वंतत्रता संग्राम में सक्रिय ( भूमिगत ) भाग लिया। ‘विन्यास’ मासिक पत्रिका एवं ‘ सोनार बंगला देश ’ कविता संकलन, ‘ कला चर्या ’ मासिक पत्रिका के संपादक। आकाशवाणी भोपाल 1953 से सम्बद्ध स्थायी अनुबंधित कवि। छतरपुर आकाशवाणी के मनोनीत कार्यक्रम सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य। प्रगतिशील लेखक संघ सागर इकाई के पूर्व अध्यक्ष। दूरदर्शन एवं महत्वपूर्ण बुंदेली कला-साहित्य संस्थाओं से सम्बद्ध। राष्ट्रीय एकता यात्रा दल सागर के संयोजक। साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं-संग्रहों में समयानुसार प्रकाशित रचनायें। डा. सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के बी.ए. फाईनल बुंदेली पाठ्यक्रम में शामिल

पुरस्कार एवं सम्मानः

    1984	शिक्षकों का राष्ट्रीय सम्मान 
    1984	मध्यप्रदेश शासन का शिक्षक पुरस्कार
    1992	मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् भोपाल द्वारा ‘ ईसुरी ’ पुरस्कार।
    1995	बुन्देलखण्ड अकादमी छतरपुर द्वारा ‘ श्री प्रवणानन्द ’ पुरस्कार।
    2000	मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा ‘अक्षर आदित्य’ सम्मान, भोपाल
    2000	अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा ‘ अभिनव शब्द शिल्पी ’ की उपाधि से सम्मानित।

प्रमुख कृतियांहिन्दी कविता

    1953	सिकता कण,
    1956	भोर के साथी,
    1960	माटी के बोल(बुन्देली),
    1965	एक नदी कण्ठी-सी, 
    1992	नीला बिरछा,
    1992	धुनकी रुई पे पौआ( बुन्देली ), 
    1992	टूटे हुए लोगों के नगर में, 
    1992	जिन्दगी चन्दन बोती है,
    1992	षड़यंत्रों के हाथ होते हैं-कई हजार, 
    1997	जब रास्ता चैराहा पहन लेता है,
    2000	मैं तुम सब,
    2001	एक लंगोटी बारो गांधी जी पर लोक शैली में गीत(बुन्देली और हिन्दी),
   अनुवाद
    1994  	मध्यप्रदेश संस्कृत अकादेमी, भाषान्तर कवि समवाय द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह में संस्कृत में अनुवाद 
    हिन्दी लेखन डायरी
    लोक संस्कृति
     गद्य पुस्तकें
     राजा हरदौल बुन्देला(बुन्देली नाटक)बुन्देलखण्ड के संस्कार गीत(आदिवासी लोक कला परिषद्,भोपाल द्वारा प्रकाशित)
     एक अध्यापक की डायरी (मध्यप्रदेश संदेश में धारावाहिक प्रकाशित)
     लोक संगीत रूपक
     बेला नटनी 	(बुन्देली संगीत रूपक)(आकाशवाणी छतरपुर से प्रसारित)
     नौरता (बुन्देली संगीत रूपक)(आदिवासी लोक कला परिषद्,भोपाल द्वारा प्रकाशित)
     बुन्देलखण्ड के लोक नृत्य राई पर शोध-मानोग्राफ(आदिवासी लोक कला परिषद द्वारा प्रकाशन)

माधव शुक्ल मनोज की रचनाएं

हिन्दी बुंदेली साहित्य के वरिष्ठ और शीर्षतम साहित्यकार की कविताऐं

माधव शुक्ल मनोज की इन अनमोल कृतियों के संकलन पर आपका स्वागत है।

कविताओं,की सूची नीचे दी गई है। पढ़िये और आनंद लीजिए।

बुन्देली कविता

1 मामुलिया, -नीला बिरछा, माधव शुक्ल‘मनोज‘

2 झर गई चम्पा झर गई बेला, -नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज‘

3 हीरा बीनें कीरा, -नीला बिरछा, माधव शुक्ल‘मनोज‘

4 बेला फूले आधी रात, -नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज‘

5 मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे, -नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज ‘

हिन्दी कविता

6 कब से यूं भटक रहे भूले से शहर में,-जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल ‘मनोज‘

7 हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है, -जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल‘मनोज‘

8 एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया,- माधव शुक्ल‘मनोज‘

9 छोटी सी नाव चले, -माधव शुक्ल‘मनोज‘

10 वह छोटा सा गांव, -भोर के साथी, माधव शुक्ल‘मनोज‘

11 एक नदी कंण्ठी सी,- एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल‘मनोज‘

12 चिल्लाता है जनमन..-टूटे हुए लोगांे के नगर में!एक नदी कंण्ठी सी@माधव शुक्ल‘मनोज‘

13 इबारत आदमी की, -टूटे हुए लोगों के नगर में, माधव शुक्ल‘मनोज‘

14 गंध के पहाड़


बुन्देली कविता

1

मामुलिया

-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज

देश के काजें बांध कें फैंटा सज कें चल दो मामुलिया

मामुलिया तोरे आ गये लिबौआ ढुड़क चलो मोरी मामुलिया।


मामुलिया तोरो गांव हिमालय जहां सें आये लिबौआ।

रनभेरी बज उठी लराई कौ तोरो आव बुलौआ।

सजग करो। घर-घर के बीरन दश की प्यारी मामुलिया।

उमड़-घुमड़ कें बनकें बिजुरिया दमक चलो मोरी मामुलिया।


2

झर गई चम्पा झर गई बेला

-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज

कब सें देखू बाट पिया की लौट अबहु नहिं आये रे

झर गई चंपा, झर गई बेला, झर गये फूल कनेरा रे।

राह देखती, बाट जोहती

देखू कौन डगरिया रे।

फरर-फरर पुरवैया बैरिन

खींचे रोज चुनरिया रे।


पोरा गिनगिन तडपूं तुम बिन सूनी सेज सिजरिया रे।

नहीं सुहावे पनघट कुईया

भरी न जाय गगरिया रे।

कटे न काटे कटतीं रतिया

दूभर हो गई बिंदिया रे।


3

हीरा बीनें कीरा

-नीला बिरछा,माधव शुक्ल‘मनोज

हीरा बीनें कीरा मुकुन्दी बीनें बेर

झुरझुरी को काटों लग गओ-

स्ब बगर गये बेर

कैसो आ गओ, अरे जमानो

हीरा हो गये कीरा।

मणि माला में आज मुकुन्दी हो गये मिरचा-जीरा।

स्वारथ की धूनी पे जा कें

हो गए सब बमभोला

महनत को सब आज पसीना

हो रओ कोकाकोला।

4

बेला फूले आधी रात

-नीला बिरछा,माधव शुक्ल मनोज

खटपट सब बंद हुई, सूनसन गलियां।

गुमसुम है कांटों में, आशा की कलियां

पुरबा की लोरियां, सुगन्ध भरी थपकी।

अंखियन में धीरे से निंदिया ले मंहकी।

सुधबुघ सब भूल गई रतियों में देहिरा-

धरती की सेजों में सपनों में अटकी बात।

बेला फूले आधी रात।


धीरे से डूब गई चंदा की चांदनी।

फीकी सी बिखरी है तारों की रोशनी

गोरी सी बेला की दूध भरी पांखुरी।

जीवन में जीने की फूंक रही बांसुरी।

सिरहाने दियला रख, जाग रही घड़कन-

करवट ले हाथ की बजाती है चुटकी रात।

बेला फूले आधी रात।


दूर अभी पूरब में भोर का सितारा।

नदिया का घाट और चुप है किनारा।

नाले किनारे है टीटई का पहरा।

अम्बर का धरती पर अंधियारा गहरा।

चिड़ियों का मीठा सा नीड़ों में बंद गीत-

स्वर साधे बैठा है, मन में गीतों का प्रात।

बेला फूले आधी रात...



5

मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे

-नीला बिरछा,माधव शुक्ल मनोज


मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।


मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।

ढ़पला-रमतूला संग बांसुरियां कूक उठी

पीलेे से मधुबन में शाखायें पीक उठी।

मीठी सुगन्ध भरे महुआ के झौर झरे।

अमवा की अमियों में बैशाखी गीत भरे।

छोटे से गांव में भुनसारे, दिन डूबे-

खेतों खलियानों में गूेहूं के साज सजे

मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे ।


ऊमर की बात नयी,शहतूती बोल नये।

बेरी के मुरचन में मीठा रस घोल गये।

भिलमा की आंखों में टेसू का रंग भरा।

काठ के कठौता में सतुआ का स्वाद घुरा

घी चुपड़ी गांकर में दुपहर की भूख बुझी-

माटी के ढ़िमलों पर जीवन के गीत गुंजे।

मन में उमंग भरे चैता के ढ़ोल बजे।


इमली की फलियों खनकीं पक कुक करके।

फल निकले पीपल के पतझर में उठ करके।

ऐसे ही गांवन के जीवन में रस छलका।

फसलों की रानी, जब करती है मन हलका।

टिमक उठी टिमकी रे, मैया के मंदिर में-

थोड़ी सी मस्ती में सबके दुख-दर्द लजे।

मन में उमंग भरे चैता के ढोल बजे।



हिन्दी कविता

6

कब से यूं भटक रहे भूले से शा शाहर में

-जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज


कब से यूं भटक रहे

भूले से शहर में


जहां नहीं मिलता है, एक टुकड़ा धूप का

खिला हुआ फूल और थोड़ी सी चांदनी-

बांह भरे इन्द्र धनुष।

मिलतीं हैं-साजिशें,अपनी ही डगर में।

कब से यूं भटक रहे, भूले से शहर में।


कोलाहल उठता है,दूकानें चलती हैं

हिसाबों की गलियों में,जोड़-तोड़ बाकी है-

लगी हुई झांकी है।

जीवन की रसधारा@घुलती है जहर में।

कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।


कौन कहां जाता,समझ नहीं आता है

चैराहे पर जीवन,धुंए के बादल सा-

एक पवन-झोंके सा।

दिखता है सब कुछ पर, धुंधली सी नजर मेंं

कब से यूं भटक रहे,भूले से शहर में।


कहा नही जाता है,सहा नहीं जाता है

बोलूं तो क्या बोलूं,खिड़की से से देखता हूं

रेत का समुन्दर है।

पानी पर नाव कभी,चल देगी लहर में।

कब से यूं भटक रहे,कागज के ‘ाहर में।


7

हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है

,- जिन्दगी चंदन बोती है,माधव शुक्ल मनोज


हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है

तुझे लगा है गहरा काटा

फिर भी मुस्काती-है

दुख-दर्दां के बेटों को तू

लोरी गाती है।

रोना कोई देख न ले

चुपके से रोती है

हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।



बुझा दिया अपने नसीब का

तू सुलकागी है

अंधकार के घर में बैठी ज्याति जलाती है

धीरज बांध लिया आंचल जब

बेचैनी होती है।

हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।


नदी हो गई जब रेतीली

तू हो मटमैली।

आकाशी घनघोर घटायें

लेकर तू-फैली।

किसी घाट पर आंसू से तू

सपनों को धोती है।

हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।


चट्टानी है तेरा सीना

सब सह जाती है

मन मसोस कर अरी जिन्दगी

तू रह जाती है।

सिर पर गुजर बसर का बोझाा

निशदिन तू ढोती है।

हाय जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।


तू सरज संग चली और फिर

दिन भर चलती है।

तेरी ही आंखों में हर दिन

संध्या ढ़लती है।

सूरज पहिन लिया माथे पर

चंदा सा मोती है।

हाय, जिन्दगी तू पहाड़ पर चंदन बोती है।


8

एक क्षण रात का हुआ दिया एक दिन सूरज होकर जिया

-माधव शुक्ल मनोज


9 गांव की भोर-नीला बिरछा, माधव शुक्ल मनोज


चक्की के पाटों का राग उठा, घरर-धरर।

माटी के घर में जगा धुंधले सुबह का पहर।

चक्की की सुरधुन सुन रोंथ रहीं गैया।

चक्की चलाय गोरी गायें झूम रैया।


छिप गई बादर की नन्हीं तरैया।

झूम उठी पुरवा ले तरू की बलैया।

चहक उठीं नाच उठी डाल पर चिरैया।

सूरज को चूम उठीं किरणों की बैयां।


बेल उठे घर-घर के नन्हें कन्हैया।

भोर भई, भोर भई, देखो री मैया।

घूंघट संभाल उठी घर की दुलहनिया।

बाज उठी पांवों की छम-छम पैजनियां।


पनघट की गलियों में झनक उठी चूड़िया।

गागरिया चूम उठी लहरों की सीढ़िया।

गागरिया शीश घरे पनहारिन ठुमक चली।

गांव की भोर काम काजों में महक चली।


नाजुक सी छोरी बुहार चली आंगन।

गडु़आ में दूध दुहे घर की सुहागिन।

गोरस की मटकी में गाये मथानी।

गांव के जीवन की भोली कहानी।


महनत की दुनिया के सैयां रसीले

अपनी जो घुन में हैं बड़े नशीले।

चूम रहे बार-बार बैलों के मुखड़े।

भूल गये कल के जो अनहोने दुखड़े।


10

वह छोटा सा गांव

-नीला बिरछाए भोर के साथी,माधव शुक्ल मनोज


वह छोटा सा गांव है


नदिया के उस पार बसा रे

वह छोटा-सा गांव है,

जहां-तहां टूटे छप्पर है

माटी की दीवार है।


जांता चक्की ओखल मूसल

सीके टंगे मियार है,

चिथड़ों से वह लदी अरगनी-

बेड़ा भीतर द्वार है।


हड़िया कुठिया और कठौता

रस्सी ओंगन चाक हैं

कंडा लकड़ी भरा मचेरा-

पौरों में अंधियार है।


खुटियों पर लटके हल बक्खर

फूटे बर्तन, खाट हैं,

हंसिया खुरपी गाड़ी-बैलों-

से पूरित घरबार है।


छुई से पुत द्वार के खम्बे

झुकी-झुकी दालान है

घर की एक पुतरिया स ीवह

घूंघट डाले नार है।


पिछवाडे़ बाड़ी गौशाला

अगल-बगल गलयार हैं

आंगन में पीपल का बिरछा-

परिजन पहरेदार हैं।


नंग-धुरग बच्चों के वे

तिल्ली वाले पेट हैं

सूखी सी रोटी से जिनको-

मिलता रहा दुलार है।


गांव के भईया भोले-भाले

खेतों के सिरताज हैं,

जिनका घिरा हुआ जंगल में

छोटा सा संसार है।



11

एक नदी कंण्ठी सी

-एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज


एक नदी कण्ठी सी


मटमैली मेड़ पर

पगडन्डी धूल पर

उस सूरज के घर

एक ताल सोने का

एक नदी कन्ठी सी।


एक गांव बहुत प्यारा है

सूरज के घर का

सबसे छोटा बेटा है

गेहूं की बालों का

मेहनती छोरा है

जो नदिया को हेर-घेर

कन्ठी सा पहिने है।


जिसकी गोरी ने

एक ताल सोने का

जो सुबह-सुबह छलका है

अपनी गागर भर

सिर पर बिंदिया सा पहिना है।


12

चिल्लाता है जनमन

..-टूटे हुए लोगांे के नगर में!एक नदी कंण्ठी सी,माधव शुक्ल मनोज


चिल्लाता है जनमन


हरि गुमसुम है, आसमान में,

चिल्लाता है जनमन

भेद आदमी ने बोया है

बटवारा है मन का

स्वार्थ सिद्धियां उगती आती

अनाचार हर दिन का

हुई भावना गन्दी,नाली गंध उड़ी जहरीली-

फंसा हुआ है कीड़ों जैसा किल्लाता है जनमन

हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।


महलों में इन्सान बड़ा हो

खाता लड्डू-पूड़ी

झोपड़ियों में पड़ी गरीबी

तप चढ़ी है-जूड़ी

मरे देश या मानवता भी अपने सुख के खातिर-

तिरस्कार से नीचे लेटा कुन्नाता है जनमन।

हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।


सेवा का है मूल्य धृणा से

कैसी अद्भुत लीला।

असहायों के सिर के ऊपर

गढ़ा हुआ है कीला।

सभा-भाषणों के द्धारा आदर्श बघारा जाता-

‘ााला की बजती घंटी सा झन्नाता है-जनमन।

हरि गुमसुम है आसमान में, चिल्लाता है जनमन।।


13

इबारत आदमी की

-टूटे हुए लोगों के नगर में,माधव शुक्ल मनोज


इबारत आदमी की


जीने का सवाल हल करते-करते

जिन्दगी का उत्तर गलत हो जाता है

गुजर-बसर का सूत्र

वर्तमान का गुणा-भाग

भविष्य का जोड़-बाकी

एक बिन्दु पर रह जाता है

निराशायें आदमी को खरीद लेती हैं

आदमी बिना भाव के बिक जाता है।


सवालों के ढेर के ढेर

नये-नये माप-तौल

मंहगाई की नयी परिभाषा-

गेहूं और पेट्रोल।


किलो और मीटर में

पानी और आग का सवाल

सवाल इबारत में बंध कर

किसी वृक्ष के ऊपर बैठ जाता है।


हाय रे, सवाल के साथ-साथ

अपने हाथों के पोरा गिनता हुआ आदमी

वृक्ष के नीचे

पक कर टपक जाता है।

उसका पूरा समय

एक कोने में

लाठी की तरह टिक जाता है।


14

गंध के पहाड़


दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन

उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।

स्वाथों ने पहिनी है

सूरज की रोशनी

सम्यता ने डाली दिखावे की ओढ़नी।

पथहारे खोज रहे जीने की छांह-

बबूल बने बैठे हैं-आमों के झाड़।

उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।


असत्य खुश है किन्तु

आज सत्य अनमना

पतित को कहा गया

ये हैं’-महामना

अपने ही घर में अभिनय का जोर है

आंगन में शोर, सभी बन्द हैं किवा़ड़।।

उड़ने लगे रात में गंध के पहाड़।।


कह रहा मनुष्य ही

मनुष्य को खराब।

छिपी हुई है भावना

पिये हुए शराब।

आदर्श को लपेट कर, महक रही है रात-

मनुष्य अब मनुष्य को ही दे रहा पछाड़।।

उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।।

दिन भर लहराते रहे खुशबुओं के वन-

उड़ने लगे रात में गन्ध के पहाड़।