भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अनन्त आलोक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(→शीर्षक) |
(→शीर्षक) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
२ | २ | ||
− | माँ के जाते ही बाप गैर हो गया | + | माँ के जाते ही बाप गैर हो गया, |
− | अपने ही लहू से उसको बैर हो गया | + | अपने ही लहू से उसको बैर हो गया, |
− | घर ले आया इक पति हंता नार को | + | घर ले आया इक पति हंता नार को, |
− | आप ही कुटुंब पर कहर हो गया | + | आप ही कुटुंब पर कहर हो गया| |
३ | ३ | ||
− | आपने तारीफ की हम खूबसूरत हो गये | + | आपने तारीफ की हम खूबसूरत हो गये, |
− | आइना देखते हम खुद में ही खो गये | + | आइना देखते हम खुद में ही खो गये, |
− | जाने क्या जादू किया आपके इल्फजों ने | + | जाने क्या जादू किया आपके इल्फजों ने, |
− | निखर कर हम सोंदर्य की मूरत हो गये | + | निखर कर हम सोंदर्य की मूरत हो गये| |
12:52, 23 जुलाई 2011 का अवतरण
शीर्षक
मुक्तक १
अब आदमी का इक नया प्रकार हो गया, आदमी का आदमी शिकार हो गया, जरुरत नहीं आखेट को अब कानन गमन की, शहर में ही गोश्त का बाजार हो गया |
२
माँ के जाते ही बाप गैर हो गया, अपने ही लहू से उसको बैर हो गया, घर ले आया इक पति हंता नार को, आप ही कुटुंब पर कहर हो गया|
३
आपने तारीफ की हम खूबसूरत हो गये, आइना देखते हम खुद में ही खो गये, जाने क्या जादू किया आपके इल्फजों ने, निखर कर हम सोंदर्य की मूरत हो गये|