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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : आदिवासी ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अघोषित उलगुलान ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन ]])</div>
 
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वे जो सुविधाभोगी हैं
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'''अघोषित उलगुलान (आंदोलन)'''
या मौक़ा परस्त हैं
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या जिन्हें आरक्षण चाहिए
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कहते हैं हम आदिवासी हैं,
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वे जो वोट चाहते हैं
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कहते हैं तुम आदिवासी हो,
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वे जो धर्म प्रचारक हैं
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कहते हैं
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तुम आदिवासी जंगली हो ।
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वे जिनकी मानसिकता यह है
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कि हम ही आदि निवासी हैं
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कहते हैं तुम वनवासी हो,
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और वे जो नंगे पैर
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अल सुबह दान्डू का काफ़िला
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
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रुख़ करता है शहर की ओर
कभी नहीं कहते कि
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और साँझ ढले वापस आता है
हम आदिवासी हैं
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परिन्दों के झुण्ड-सा,
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
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अपना इलाज करना
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अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
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और कटती है रात
मौसम का मिजाज समझना
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अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
सारे पेड़-पौधे, पर्वत-पहाड़
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कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
नदी-झरने जानते हैं
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दबी रह जाती है
कि वे कौन हैं ।  
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जीवन की पदचाप
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बिल्कुल मौन !
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वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
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या खेलते थे
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खेलते हैं शहर के
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कंक्रीटीय जंगल में
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शहर में
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लड़ रहे हैं जंगल
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नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
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जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
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गुफ़ाओं की तरह टूटती
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अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़
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इनमें भी वही आक्रोशित हैं
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जो या तो अभावग्रस्त हैं
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बाकी तटस्थ हैं
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या लूट में शामिल हैं
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मंत्री जी की तरह
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जो आदिवासीयत का राग भूल गए
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रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।
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कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
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कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
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पहाड़ों के टूटने पर
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ट्रेन की पटरी पर पड़ी
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तुरिया की लवारिस लाश पर
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कोई कुछ नहीं बोलता
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केवल सियासत की गलियों में
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आरक्षण के नाम पर
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बोलते हैं लोग केवल
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उनके धर्मांतरण पर
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चिंता है उन्हें
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उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की
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यह चिंता नहीं कि
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रोज कंक्रीट के ओखल में
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पिसते हैं उनके तलबे
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और लोहे की ढेंकी में
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कूटती है उनकी आत्मा
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बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
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लड़ रहे हैं आदिवासी
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अघोषित उलगुलान में
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कट रहे हैं वृक्ष
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माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
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बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।
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दान्डू जाए तो कहाँ जाए
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कटते जंगल में
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या बढ़ते जंगल में ।  
 
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20:17, 8 अगस्त 2011 का अवतरण

Lotus-48x48.png
सप्ताह की कविता
शीर्षक : अघोषित उलगुलान (रचनाकार: अनुज लुगुन )
'''अघोषित उलगुलान (आंदोलन)'''

अल सुबह दान्डू का काफ़िला
रुख़ करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,

अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन !

वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल

शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल

लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
गुफ़ाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़

इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।

कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता

बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की

यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा

बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।

लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।

दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में ।