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कोई भीतर से चीख कर पूछता है
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फिर भी अजनबी!
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किसके घर जाऊँ?
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किसे जगाऊँ?
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इस मध्य रात्रि में

00:22, 1 अगस्त 2007 का अवतरण


मन के सिरहाने

सजा कर रखी हैं कितनी किताबें !

क्मरे में एक पतली मोमबत्ती

पीले प्रकाश में

पिघल रही है

धीरे-धीरे

मेरे चेहरे पर

रोशनी की तिरछी लकीरें

मेरी आँखें जल रही हैं

तीव्र आवेग में


इसी समय

प्रवेश करती है--

एक काली छाया

खुले हुए बाल

धरती में लोट-पोट

उसका चेहरा नहीं दीखता

मैं उठ कर बैठ जाता हूँ

आँखों पर ज़ोर देकर देखता हूँ

कौन है वह?

मुझे जीवनानंद दास की ऎक कविता

याद आती है और

मन के सिरहाने रखी

पुस्तकों के पन्ने खुल कर

फड़फड़ाने लगते हैं


एक गहरी खामोशी है

बाहर और भीतर

एक भी शब्द

कहीं झंकृत नहीं होता

एक भी ध्वनि

कहीं नहीं होती

सिर्फ़ एक गहरी ख़ामोशी है

बाहर और भीतर

कौन है वह ?--

कोई भीतर से चीख कर पूछता है

पर होंठ

सिर्फ़ हिल कर रह जाते हैं

और ऎसे में

बुझ जाती है मोमबत्ती

लुप्त हो जाता है

जीर्ण पीला प्रकाश


उठता हूँ और

बाहर की ओर चलता हूँ

एक धुँधली वीरानगी से

लिपटे खड़े हैं पेड़

रास्ते जाने-पहचाने हैं

फिर भी अजनबी!

किसके घर जाऊँ?

किसे जगाऊँ?

इस मध्य रात्रि में