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"कुपथ रथ दौड़ाता जो / जानकीवल्लभ शास्त्री" के अवतरणों में अंतर

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उपर उपर पी जातें हैं, जो पीने वाले हैं,
 
उपर उपर पी जातें हैं, जो पीने वाले हैं,
 
कहते - ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!
 
कहते - ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!
इस न्रूशंस छीना-झपटी पर, फट कपटी पर,
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इस नृशंस छीना-झपटी पर, फट कपटी पर,
 
उन्मद बादल,
 
उन्मद बादल,
मुसलधार शतधार नहिं बरसाता है!
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मुसलधार शतधार नहीं बरसाता है!
 
तो सागर पर उमड़-घुमड़ कर, गरज-तरज कर, -
 
तो सागर पर उमड़-घुमड़ कर, गरज-तरज कर, -
 
ब्यर्थ गड़गड़ाने, गाने क्या आता है?
 
ब्यर्थ गड़गड़ाने, गाने क्या आता है?

01:35, 31 अगस्त 2011 का अवतरण

साँचा:KKGlobal। मेघगीत


उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
पागल बादल,
शून्य गगन में ब्यर्थ मगन मंड्लाता है!
इतराता इतना सूखे गर्जन-तर्जन पर,
झूम झूम कर निर्जन में क्या गाता है?

(१)

दीरघ दाघ निदाघ उगलता रहा आग ही,
डंसता भूमि, मयूख-दंत रवि शेषनाग ही!
हरित भरित तरु-गुल्म रह गये उलस-झुलस कर!
शुष्क-कण्ठ, आतुर-उर, कातर-स्वर नारी नर!!
ऐसे में तू एक शिखर से अपर शिखर पर,
रोमल, श्यामल मेष-शशक-सा विचर-विचर कर, -
चरता है; परिणत गज सा वह खेल दिखाता,
नटखट बादल,
जो भूखे-प्यासे को नहीं सुहाता है!
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
चंचल बादल,
शून्य गगन में ब्यर्थ मगन मंड्लाता है!!

(२)

ताड़ खड़खड़ाते हैं केवल; चील गीध ही गाते,
द्रवित दाह भी जम जाता धरती तक आते आते,
कलरव करने वाले पंछी , पत्तों वाली डाली,
उन्हें कहां ठंडक मिलती है, इन्हें कहां हरियाली?
उपर उपर पी जातें हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते - ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं!
इस नृशंस छीना-झपटी पर, फट कपटी पर,
उन्मद बादल,
मुसलधार शतधार नहीं बरसाता है!
तो सागर पर उमड़-घुमड़ कर, गरज-तरज कर, -
ब्यर्थ गड़गड़ाने, गाने क्या आता है?

(३)

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो, पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से, धृति उपदेश वह है,
मूर्त दंभ गढ़ने उठता है शील विनय परिभाषा,
मृत्यू रक्तमुख से देता जन को जीवन की आशा,

जनता धरती पर बैठी है,नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से, उतना वही बड़ा है,
यही विपर्यय, यही व्यतिक्रम मानदंड नव,
मानी बादल,
तू भी उपर ही से सैन चलाता है!
तेरी बिजली राह दिखाती नहिं नई रे,
यह परम्परा तो तू भी न ढहाता है!

(४)

गिरि-शिखरों की उठा बाहुयें, स्पर न अधर तक आता,
आ रे आ, तुझकॊ बुला रही तेरी धरती माता!
समय बीतता जाता है, बीता न बहुर कर आता,
आ रे आ, मरघट को नव फूलों का देश बनाता!
क्षेत्र-क्षेत्र को प्लावित करना, है घट-घट को भरना,
आ रे आ, प्रिय, अभी तो तुझे सात समुन्दर तरना!
कोने-कोने, श्याम-सलोने, तू लुक-छुप कर,
गीले बादल,
भूतल को कब वृन्दा-विपिन बनाता है?
बूंद-बूंद देकर सूखे को हरित, मन्जरित
और गुन्जरित करने अब कब आता है?