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13:20, 21 फ़रवरी 2008 के समय का अवतरण
एक व्यर्थ होता दुख
एक हाय-हाय फँसी हुई दिल में
मृत्यु के नाख़ून गड़ते हैं
कहीं चुभती फाँस तीखी
जीवन मुझे भूला नहीं है
वह अवकाश में है
कहता--
लो, भरो मुझे
जैसे मैं
भरता हूँ दुख को ।