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16:27, 11 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण
नशा बेहोशी से गहरा देखा,
मौत, कल शब तेरा चेहरा देखा।
बस तेरी आंख मुश्तइल थी मौत,
और हर आंख में कोहरा देखा।
वो जो दर्दों को जुबां देता था,
उस पे ख़ामोशी का पहरा देखा।
वो, जिनके नाम से गुलज़ार थे कई नुक्कड़,
उनके होठों पे ग़म-ओ-दर्द को ठहरा देखा।
दिलों की बस्तियों में, प्यार के घरौंदों में,
हमने ख़ामोशी का सहरा देखा।
मेरे ख़याल से रौशन थी एक-एक मशाल,
हरेक लब पे तेरे नाम को ठहरा देखा।
मैं जानता था कि, अंधी अदालतें हैं सभी,
आज इस शहर में इंसाफ़ को बहरा देखा।
(सफ़दर हाशमी के लिए)