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"प्रेरणा के नाम / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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तुम्हें याद होगा प्रिय
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जब तुमने आँख का इशारा किया था
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तब
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मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
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ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
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शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
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जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
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किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
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मेरा तो नहीं था सिर्फ़!
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जैसे बिजली का स्विच दबे
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औ’ मशीन चल निकले,
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वैसे ही मैं था बस,
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मूक...विवश...,
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कर्मशील इच्छा के सम्मुख
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परिचालक थे जिसके तुम।
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आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
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शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
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बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
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काला हुआ है व्योम,
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किंतु मैं करूँ तो क्या?
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मन करता है--उठूँ,
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दिल बैठ जाता है,
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पाँव चलते हैं
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कभी इन्हीं शब्दों ने
 
कभी इन्हीं शब्दों ने
 
ज़िन्दा किया था मुझे
 
ज़िन्दा किया था मुझे

12:53, 25 नवम्बर 2011 का अवतरण

तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!

जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।

आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं


कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?