:तुम संकट-साहस पर निसार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम एक-एक वे जलकण जो मिलकर बनते अगणित सागर,
वे एके-एक तारक जिनसे ‘जगमग’ करता विस्तृत अंबर;
तुम वे छोटे-छोटे रजकण जिनपर असीम वसुधा निर्भर,
:तुम लघुता की महिमा अपार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
जीवन के दिन गिनने वाले कायर-कृपणों को दहला कर,
पाखंड, मोह, छल, आडंबर के मलिन विश्व से उठ ऊपर;
जो हँसते-हँसते टूट पड़े तारक-सा ‘धक-धक’ जल क्षण-भर,
:तुम वह तेजस्वी, वह उदार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
जो तट से कोसों दूर पहुँच हलका चिंता का भार करे,
मझधार अतल में अभय विमल दृग से जिसके अनुराग झरे,
जो जीवन नौका फँसा भँवर में लहरों से खिलवाड़ करे,
:तुम वह तूफ़ानी कर्णधार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम नूतन की जय, जिसको सुन कँप उठता जीर्ण जगत ‘थर-थर’,
वह वायुवेग, द्रुत होती गति जिससे मानवता की मंथर;
वह जाग्रति-किरण, अलस पलकों पर तप्त शलाका-सी लगकर।
:जो खुलवाती कर्तव्य-द्वार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
माँ के अंचल की ममता या यौवन के सुख का लोभ नहीं,
जर्जरित जरा का पछतावा, बीते जीवन का क्षोभ नहीं;
तुम वर्तमान के कठिन कर्म, छू सकता तुमको मोह कहीं?
:कर सकता बंदी तुम्हें प्यार?
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
तुम नहीं डराए जा सकते शस्त्रों से, अत्याचारों से,
तुम नहीं भुलाए जा सकते वीणा की मृदु झंकारों से;
तुम नहीं सुलाए जा सकते थपकी से, प्यार-दुलारों से,
:तुम सुनते पीड़ित की पुकार!
::मेरे किशोर, मेरे कुमार!
</poem>