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"दिन अकेले के / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर
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01:04, 25 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
देह पर गहरी खरोंचे मारते
ये दिन अकेले के
अब तुम्हारा दिया मौसम
क्या करें ले के ?
पँख पाकर उड़ गईं
वे पालतू शामें
रँग उतरी दीखती रातें
दोपहर का बोझ
इतना बढ़ गया है अब
याद ही आती नहीं—
वे बुने स्वेटर-सी गई बातें
धूप लौटा कर अँधेरे को
टाँग लेता हूँ जली दीवार पर
रोशनी का चित्र ले-दे के
टूटते तारे सरीखे
दूर पर जब पास के रिश्ते
अब नहीं महसूस होते हैं
धूप के धनवान दिन भी तो
बेसहारों के लिए
कंजूस होते हैं
समय मुझ को, मैं समय को
काटता हूँ साँस ले-ले के