"वरद बरगद / बसन्तजीत सिंह हरचंद" के अवतरणों में अंतर
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(बाबू जी के निधन पर )
पहले की भांति ही
आएँगे चलकर मेरे द्वार पर दिन और रात ,
आकाश के अनिष्ट ग्रह बरसाएंगे ध्वंसक उल्का ,
पर पहरे पर सैनिक जैसा सन्नद्ध
वह आंगन का एकच्छत्र छायादार वट नहीं होगा .
जिसकी जड़ों की गोद में मेरा गूंगा 'मैं 'तुतलाया
जिसके छाते के नीचे नन्हा बचपन अटपट भागा ,
जिसकी स्नेहावनत भुजाएं पकड़
उछल कंधों पर चढ़ मैंने संसार - विस्तार देखा,
जिसके मधुर फल खाए
जिसकी डांट में नेह था
और जिसके नेह में मुझे डांट दिखाई देती थी ,
जिसने मुझे जीवन का वरदान दिया
वह वरद वटवृक्ष नहीं होगा .
पहले की भांति ही प्रसन्नता -प्रदा पूनम
दुधिया चाँदनी मुस्काएगी सारी -सारी रात ,
प्रात: जागने पर धूप का घूँघट हटा
पर्वत की ओट से झाँकेगी बीरबहूटी जैसी उषा ,
हवा अटखेलियाँ करती
फूंक मारकर उड़ा देगी मेरी कविताओं के पृष्ठ ,
अंडे रूपी सूर्य पर पंख फैला बैठ जाएगी क्षण भर
कृष्णवर्णा बदली की मयूरी ,
किन्तु वह महावट नहीं होगा .
मेरे लिए जिसने
चट्टानी वक्ष पर झेलीं संघर्षों की वज्र गदाएँ ,
संकटों के ओला - वर्षण में फुडवाया उन्नत शीश
संसार की लू - लपटों में तपाया बलिष्ठ शरीर ,
निराशा की शीत में ठंडा नहीं पड़ने दिया उत्साह
सफलताओं के चुने कुसुमाकर - कुसुम ,
कभी नहीं सीखा
असफलताओं के पतझड़ - अंधड़ों में होना हीन ,
प्रत्येक सुख को ,दुःख को सहा हँसकर
मेरे कारण जग का रण जिसने लड़ा,
'उफ़ ' तक न कहा
अब वह महाभट नहीं होगा .
विधवा - वस्त्रों में
अब उजड़ी पूनम चीर के रख देगी मेरा कलेजा ,
प्रात: उठने पर गृह का अणु - अणु
उदासी से भर देगी पीली पड़ गई उषा हताश ,
हवा सिर झुकाए गुजरेगी धीरे - धीरे बहुत धीरे
अनदेखा रह जाएगा सूर्य ज्यों गंदा अंडा ,
प्रकृति की प्रकृति
पहले के जैसी नहीं दिखेगी ,
क्योंकि अब वह महावृक्ष नहीं होगा .
सन्नाटे के शून्य में घुटेंगी मेरी तड़पती सासें ,
रुंध जाएगा गले में अर्द्ध - स्फुट रोदन - स्वर ,
केले के पत्ते की भांति पीड़ा से काँपेगा तन ,
बरबस छलछ्लाएंगी आँखों की कटोरियाँ
आंसुओं से सींचूँगा असंख्य स्मृतियाँ ,
मृत्यु - पटाक्षेपोपरान्त अब
सांध्य- घंटों की घं - घं ध्वनि की तरह
मेरे नेपथ्य में गूंजेगा मिथ्या का सत्य ----
'है जगत मिथ्या
मिथ्या है जगत
जगत मिथ्या है .'
क्योंकि अब वह महावटवृक्ष नहीं होगा .
बार - बार हजार बार
सांसारिक यन्त्रनाओं के चंगुल में फंसा
मैं उसे वैसे ही स्मरण करूंगा ,
जैसे असहाय अभिमन्यु ने किया अर्जुन को
क्रूर षड्यंत्र में घिरकर गिर जाने पर ;
पर अब वह महाज्ञानवट नहीं होगा ..
(घुटकर मरती पुकार ,२०००)