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==काकोरी काण्ड का मुकदमा==
काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित [[जगतनारायण मुल्ला]] सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: '''"मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; ''' ''' अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। ''' '''पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; ''' ''' कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"'''
उनके कहने का मतलब स्पष्ठ था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!
== आत्मकथा का लेखन जेल में ==
प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी की नई तिथि १९ दिसम्बर १९२७ की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा, जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नाम दिया था,पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये। उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह उर्दू का यह शेर लिखा था -