"लकड़ी का रावण / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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दीखता | दीखता | ||
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त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से | त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से | ||
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अनाम, अरूप और अनाकार | अनाम, अरूप और अनाकार | ||
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असीम एक कुहरा, | असीम एक कुहरा, | ||
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भस्मीला अन्धकार | भस्मीला अन्धकार | ||
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फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; | फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर; | ||
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लटकती हैं मटमैली | लटकती हैं मटमैली | ||
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ऊँची-ऊँची लहरें | ऊँची-ऊँची लहरें | ||
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मैदानों पर सभी ओर | मैदानों पर सभी ओर | ||
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लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर | लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर | ||
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ऊपर उठ | ऊपर उठ | ||
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पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक | पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक | ||
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मुक्त और समुत्तुंग !! | मुक्त और समुत्तुंग !! | ||
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उस शैल-शिखर पर | उस शैल-शिखर पर | ||
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खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता भव्य | खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता भव्य | ||
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निःसंग | निःसंग | ||
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ध्यान-मग्न ब्रह्म... | ध्यान-मग्न ब्रह्म... | ||
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मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ | मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ | ||
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सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् ! | सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् ! | ||
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मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान | मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान | ||
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खड़ा है सुनील | खड़ा है सुनील | ||
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शून्य | शून्य | ||
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रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक । | रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक । | ||
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दोनों हम | दोनों हम | ||
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अर्थात् | अर्थात् | ||
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मैं व शून्य | मैं व शून्य | ||
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देख रहे...दूर...दूर...दूर तक | देख रहे...दूर...दूर...दूर तक | ||
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फैला हुआ | फैला हुआ | ||
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मटमैली जड़ीभूत परतों का | मटमैली जड़ीभूत परतों का | ||
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लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन | लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन | ||
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रहा ढाँक | रहा ढाँक | ||
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कन्दरा-गुहाओं को, तालों को | कन्दरा-गुहाओं को, तालों को | ||
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वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को | वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को | ||
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अकस्मात् | अकस्मात् | ||
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दोनों हम | दोनों हम | ||
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मैं वह शून्य | मैं वह शून्य | ||
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देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें | देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें | ||
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हिल रही, मुड़ रही !! | हिल रही, मुड़ रही !! | ||
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क्या यह सच, | क्या यह सच, | ||
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कम्बल के भीतर है कोई जो | कम्बल के भीतर है कोई जो | ||
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करवट बदलता-सा लग रहा ? | करवट बदलता-सा लग रहा ? | ||
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आन्दोलन ? | आन्दोलन ? | ||
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नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है | नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है | ||
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फिर भी उस आर-पार फैले हुए | फिर भी उस आर-पार फैले हुए | ||
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कुहरे में लहरीला असंयम !! | कुहरे में लहरीला असंयम !! | ||
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हाय ! हाय ! | हाय ! हाय ! | ||
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क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में | क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में | ||
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कौन-सा है नया भाव ? | कौन-सा है नया भाव ? | ||
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क्रमशः | क्रमशः | ||
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कुहरे की लहरीली सलवटें | कुहरे की लहरीली सलवटें | ||
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मुड़ रही, जुड़ रही, | मुड़ रही, जुड़ रही, | ||
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आपस में गुँथ रही !! | आपस में गुँथ रही !! | ||
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क्या है यह !! | क्या है यह !! | ||
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यर क्या मज़ाक है, | यर क्या मज़ाक है, | ||
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अरूर अनाम इस | अरूर अनाम इस | ||
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कुहरे की लहरों से अगनित | कुहरे की लहरों से अगनित | ||
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कइ आकृति-रूप | कइ आकृति-रूप | ||
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बन रहे, बनते-से दीखते !! | बन रहे, बनते-से दीखते !! | ||
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कुहरीले भाफ भरे चहरे | कुहरीले भाफ भरे चहरे | ||
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अशंक, असंख्य व उग्र... | अशंक, असंख्य व उग्र... | ||
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अजीब है, | अजीब है, | ||
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अजीबोगरीब है | अजीबोगरीब है | ||
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घटना का मोड़ यह । | घटना का मोड़ यह । | ||
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अचानक | अचानक | ||
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भीतर के अपने से गिरा कुछ, | भीतर के अपने से गिरा कुछ, | ||
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खसा कुछ, | खसा कुछ, | ||
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नसें ढीली पड़ रही | नसें ढीली पड़ रही | ||
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कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा | कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा | ||
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आतंकित हम सब | आतंकित हम सब | ||
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अभी तक | अभी तक | ||
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समुत्तुंग शिखरों पर रहकर | समुत्तुंग शिखरों पर रहकर | ||
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सुरक्षित हम थे | सुरक्षित हम थे | ||
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जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे, | जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे, | ||
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अहं-हुंकृति के ही...यम-नियम थे, | अहं-हुंकृति के ही...यम-नियम थे, | ||
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अब क्या हुआ यह | अब क्या हुआ यह | ||
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दुःसह !! | दुःसह !! | ||
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सामने हमारे | सामने हमारे | ||
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घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख | घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख | ||
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लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे | लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे | ||
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लगते हैं घोरतर । | लगते हैं घोरतर । | ||
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जी नहीं, | जी नहीं, | ||
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वे सिर्फ कुहरा ही नहीं है, | वे सिर्फ कुहरा ही नहीं है, | ||
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काले-काले पत्थर | काले-काले पत्थर | ||
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व काले-काले लोहे के लगते वे लोग । | व काले-काले लोहे के लगते वे लोग । | ||
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हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या | हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या | ||
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भरमाया मेरा मन, | भरमाया मेरा मन, | ||
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उनके वे स्थूल हाथ | उनके वे स्थूल हाथ | ||
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मनमाने बलशाली | मनमाने बलशाली | ||
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लगते हैं ख़तरनाक; | लगते हैं ख़तरनाक; | ||
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जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे । | जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे । | ||
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डरता हूँ, | डरता हूँ, | ||
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उनमें से कोई, हाय | उनमें से कोई, हाय | ||
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सहसा न चढ़ जाय | सहसा न चढ़ जाय | ||
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उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर, | उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर, | ||
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पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा ! | पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा ! | ||
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बढ़ न जायँ | बढ़ न जायँ | ||
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छा न जायँ | छा न जायँ | ||
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मेरी इस अद्वितीय | मेरी इस अद्वितीय | ||
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सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ, | सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ, | ||
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हमला न कर बैठे ख़तरनाक | हमला न कर बैठे ख़तरनाक | ||
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कुहरे के जनतन्त्री | कुहरे के जनतन्त्री | ||
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वानर ये, नर ये !! | वानर ये, नर ये !! | ||
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समुदाय, भीड़ | समुदाय, भीड़ | ||
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डार्क मासेज़ ये मॉब हैं, | डार्क मासेज़ ये मॉब हैं, | ||
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हलचलें गड़बड़, | हलचलें गड़बड़, | ||
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नीचे थे तब तक | नीचे थे तब तक | ||
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फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे; | फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे; | ||
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कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे । | कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे । | ||
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अब यह लंगूर हैं | अब यह लंगूर हैं | ||
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हाय हाय | हाय हाय | ||
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शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !! | शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !! | ||
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आसमानी शमशीरी, बिजलियों, | आसमानी शमशीरी, बिजलियों, | ||
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मेरी इन भुजाओं में बन जाओ | मेरी इन भुजाओं में बन जाओ | ||
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ब्रह्म-शक्ति ! | ब्रह्म-शक्ति ! | ||
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पुच्छल ताराओं, | पुच्छल ताराओं, | ||
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टूट पड़ो बरसो | टूट पड़ो बरसो | ||
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कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे | कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे | ||
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विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं... | विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं... | ||
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प्रहार करो उन पर, | प्रहार करो उन पर, | ||
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कर डालो संहार !! | कर डालो संहार !! | ||
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अरे, अरे ! | अरे, अरे ! | ||
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नभचुम्बी शिखरों पर हमारे | नभचुम्बी शिखरों पर हमारे | ||
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बढ़ते ही जा रहे | बढ़ते ही जा रहे | ||
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जा रहे चढ़ते | जा रहे चढ़ते | ||
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हाय, हाय, | हाय, हाय, | ||
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सब ओर से घिरा हूँ । | सब ओर से घिरा हूँ । | ||
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सब तरफ़ अकेला, | सब तरफ़ अकेला, | ||
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शिखर पर खड़ा हूँ । | शिखर पर खड़ा हूँ । | ||
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लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा । | लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा । | ||
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परन्तु, यह क्या | परन्तु, यह क्या | ||
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आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !! | आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !! | ||
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स्वयं को ही लगता हूँ | स्वयं को ही लगता हूँ | ||
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बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए | बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए | ||
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महाकाय रावण-सा हास्यप्रद | महाकाय रावण-सा हास्यप्रद | ||
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भयंकर !! | भयंकर !! | ||
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हाय, हाय, | हाय, हाय, | ||
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उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय | उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय | ||
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और कि भाग नहीं पाता मैं | और कि भाग नहीं पाता मैं | ||
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हिल नहीं पाता हूँ | हिल नहीं पाता हूँ | ||
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मैं मन्त्र-कीलि-सा, भूमि में गड़ा-सा, | मैं मन्त्र-कीलि-सा, भूमि में गड़ा-सा, | ||
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जड़ खड़ा हूँ | जड़ खड़ा हूँ | ||
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अब गिरा, तब गिरा | अब गिरा, तब गिरा | ||
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इसी पल कि उल पल... | इसी पल कि उल पल... | ||
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11:46, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण
दीखता
त्रिकोण इस पर्वत-शिखर से
अनाम, अरूप और अनाकार
असीम एक कुहरा,
भस्मीला अन्धकार
फैला है कटे-पिटे पहाड़ी प्रसारों पर;
लटकती हैं मटमैली
ऊँची-ऊँची लहरें
मैदानों पर सभी ओर
लेकिन उस कुहरे से बहुत दूर
ऊपर उठ
पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक एक
मुक्त और समुत्तुंग !!
उस शैल-शिखर पर
खड़ा हुआ दीखता है एक द्योः पिता भव्य
निःसंग
ध्यान-मग्न ब्रह्म...
मैं ही वह विराट् पुरुष हूँ
सर्व-तन्त्र, स्वतन्त्र, सत्-चित् !
मेरे इन अनाकार कन्धों पर विराजमान
खड़ा है सुनील
शून्य
रवि-चन्द्र-तारा-द्युति-मण्डलों के परे तक ।
दोनों हम
अर्थात्
मैं व शून्य
देख रहे...दूर...दूर...दूर तक
फैला हुआ
मटमैली जड़ीभूत परतों का
लहरीला कम्बल ओर-छोर-हीन
रहा ढाँक
कन्दरा-गुहाओं को, तालों को
वृक्षों के मैदानी दृश्यों के प्रसार को
अकस्मात्
दोनों हम
मैं वह शून्य
देखते कि कम्बल की कुहरीली लहरें
हिल रही, मुड़ रही !!
क्या यह सच,
कम्बल के भीतर है कोई जो
करवट बदलता-सा लग रहा ?
आन्दोलन ?
नहीं, नहीं मेरी ही आँखों का भ्रम है
फिर भी उस आर-पार फैले हुए
कुहरे में लहरीला असंयम !!
हाय ! हाय !
क्या है यह !! मेरी ही गहरी उसाँस में
कौन-सा है नया भाव ?
क्रमशः
कुहरे की लहरीली सलवटें
मुड़ रही, जुड़ रही,
आपस में गुँथ रही !!
क्या है यह !!
यर क्या मज़ाक है,
अरूर अनाम इस
कुहरे की लहरों से अगनित
कइ आकृति-रूप
बन रहे, बनते-से दीखते !!
कुहरीले भाफ भरे चहरे
अशंक, असंख्य व उग्र...
अजीब है,
अजीबोगरीब है
घटना का मोड़ यह ।
अचानक
भीतर के अपने से गिरा कुछ,
खसा कुछ,
नसें ढीली पड़ रही
कमज़ोरी बढ़ रही; सहसा
आतंकित हम सब
अभी तक
समुत्तुंग शिखरों पर रहकर
सुरक्षित हम थे
जीवन की प्रकाशित कीर्ति के क्रम थे,
अहं-हुंकृति के ही...यम-नियम थे,
अब क्या हुआ यह
दुःसह !!
सामने हमारे
घनीभूत कुहरे के लक्ष-मुख
लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु ये रूप, अरे
लगते हैं घोरतर ।
जी नहीं,
वे सिर्फ कुहरा ही नहीं है,
काले-काले पत्थर
व काले-काले लोहे के लगते वे लोग ।
हाय, हाय, कुहरे की घनीभूत प्रतिमा या
भरमाया मेरा मन,
उनके वे स्थूल हाथ
मनमाने बलशाली
लगते हैं ख़तरनाक;
जाने-पहचाने-से लगते हैं मुख वे ।
डरता हूँ,
उनमें से कोई, हाय
सहसा न चढ़ जाय
उत्तुंग शिखर की सर्वोच्च स्थिति पर,
पत्थर व लोहे के रंग का यह कुहरा !
बढ़ न जायँ
छा न जायँ
मेरी इस अद्वितीय
सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ,
हमला न कर बैठे ख़तरनाक
कुहरे के जनतन्त्री
वानर ये, नर ये !!
समुदाय, भीड़
डार्क मासेज़ ये मॉब हैं,
हलचलें गड़बड़,
नीचे थे तब तक
फ़ासलों में खोये हुए कहीं दूर, पार थे;
कुहरे के घने-घने श्याम प्रसार थे ।
अब यह लंगूर हैं
हाय हाय
शिखरस्थ मुझको ये छू न जायँ !!
आसमानी शमशीरी, बिजलियों,
मेरी इन भुजाओं में बन जाओ
ब्रह्म-शक्ति !
पुच्छल ताराओं,
टूट पड़ो बरसो
कुहरे के रंग वाले वानरों के चहरे
विकृत, असभ्य और भ्रष्ट हैं...
प्रहार करो उन पर,
कर डालो संहार !!
अरे, अरे !
नभचुम्बी शिखरों पर हमारे
बढ़ते ही जा रहे
जा रहे चढ़ते
हाय, हाय,
सब ओर से घिरा हूँ ।
सब तरफ़ अकेला,
शिखर पर खड़ा हूँ ।
लक्ष-मुख दानव-सा, लक्ष-हस्त देव सा ।
परन्तु, यह क्या
आत्म-प्रतीति भी धोखा ही दे रही !!
स्वयं को ही लगता हूँ
बाँस के व कागज़ के पुट्ठे के बने हुए
महाकाय रावण-सा हास्यप्रद
भयंकर !!
हाय, हाय,
उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय
और कि भाग नहीं पाता मैं
हिल नहीं पाता हूँ
मैं मन्त्र-कीलि-सा, भूमि में गड़ा-सा,
जड़ खड़ा हूँ
अब गिरा, तब गिरा
इसी पल कि उल पल...