"धूप के खरगोश / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर
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+ | इस संग्रह में जहाँ प्रकृति के मनोरम बिम्ब हैं , वही मर्मस्पर्शी अनुभूतियाँ भी पाठक को रससिक्त कर देती हैं । पहले पाठ में हाइकु के शाब्दिक धरातल तक पहुँचते हैं , लेकिन बार-बार पढ़कर जब चिन्तन और अनुभव के धरातल पर उतरते ही पता चलता है कि लघुकाय छन्द में अनुस्यूत भाव बहुत गहरे है और विभिन्न आयाम लिये हुए है । बहुरंगी प्रकृति हो या प्रेम की गहनता हो, परदु:ख कातरता हो या सामाजिक सरोकार हों , भावनात्मक सम्बन्ध हों या सांसारिक रिश्ते; डॉ भावना के कैमरे का फ़ोकस बहुत सधा हुआ और स्पष्ट नज़र आता है । कैमरा तो बहुतों के पास होता है पर उसे सही बिन्दु पर फ़ोकस करना सबके बस की बात नहीं ।हाइकु की बनावट और बुनावट के इन्द्रधनुषी अर्थों को खोलते हुए,जीवन के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और उसमें अन्तर्हित अर्थ तक पहँच बिना जीवन की आँच में तपे नहीं होती । | ||
+ | प्रसिद्ध हाइकुकार डॉ [[ सुधा गुप्ता ]] के अनुसार - | ||
+ | अब भावना लेकर आईं हैं ,अपना दूसरा हाइकु-संग्रह जिसमें; 511 हाइकु हैं और प्रकृति की रम्य दृश्यावली के छवि-चित्रों की भरमार है ! अपने प्रथम हाइकु-संग्रह "तारों की चूनर" से ही भावना अपना प्रकृति-प्रेम प्रमाणित कर चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह में भी प्रकृति-नटी की एक बढ़कर एक चित्ताकर्षक नूतन भंगिमाएँ यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई पड़ती हैं कुछ चित्र- | ||
+ | रंग-पोटली/ हाथ से ज्यूँ फिसली/ बनी तितली । | ||
+ | ढोल बजाते/ बैठ काले रथ पे/ बादल आते । | ||
+ | नन्हीं बुँदियाँ /ठुमुक कर आतीं/ नाच दिखातीं । | ||
+ | गेहूँ की बाली/ होकर मदहोश/ बजाए ताली । | ||
+ | आँखमिचौली/ लहरों से खेलतीं/ किरणें भोली । | ||
+ | पहने बैठी/ हीरे की नथुनी-सी/ फूल -पाँखुरी । | ||
+ | हवा की अल्हड़ चंचलता और शोखी के क्या कहने- | ||
+ | भागती आई/ दुपट्टा गिरा कहीं/ चंचल हवा । | ||
+ | छुड़ा न पाई/ कँटीली झाड़ियों से/ हवा दुपट्टा । | ||
+ | कमाल की बात है कि हवा 'जादूगरनी' बन, हाइकुकार को 'बहका' कर किसी ओर लोक में ले जाती है- | ||
+ | बहका गई/ जादूगरनी बन/ देखो पवन । | ||
+ | ये पुरवाई/ वतन की खुशबू/ लेकर आई। | ||
+ | दूर परदेस में बैठी लाडो बिटिया को अपनों से दूर होने का ग़म सालता है... वह आधुनिक निर्माण और नव्यता-प्रेमी परिवार-जन से याचना कर उठती है- | ||
+ | गिराओ मत/ माँ की खुशबू वाले/ पुराने आले ।''' |
17:22, 30 अप्रैल 2012 का अवतरण
रचनाकार | भावना कुँअर |
---|---|
प्रकाशक | अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली ,नई दिल्ली–110030 |
वर्ष | 20112 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | हाइकु कविताएँ |
विधा | हाइकु |
पृष्ठ | 112 |
ISBN | 978-81-7408-542-9 |
विविध | मूल्य(सजिल्द) :180 |
XXXXX
भावना कुँअर के इस संग्रह 511 हाइकु संगृहीत हैं । रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ने कहा है -डॉ भावना कुँअर ने अपने प्रथम हाइकु संग्रह ‘’तारों की चूनर’’ के द्वारा हाइकु -जगत् को अपने साहित्य-कर्म से केवल अवगत ही नहीं कराया ,वरन् यह सिद्ध भी कर दिखाया कि हाइकु जैसे लघु कलेवर के छन्द में भी गरिमापूर्ण काव्य प्रस्तुत किया जा सकता है । प्रकृति के अवगाहन से लेकर हृदय की अन्तरंग अनुभूतियों की सरस प्रस्तुति तक । वही आश्वस्ति ‘धूप के खरगोश ‘में भी रूपायित होती है।
इस संग्रह में जहाँ प्रकृति के मनोरम बिम्ब हैं , वही मर्मस्पर्शी अनुभूतियाँ भी पाठक को रससिक्त कर देती हैं । पहले पाठ में हाइकु के शाब्दिक धरातल तक पहुँचते हैं , लेकिन बार-बार पढ़कर जब चिन्तन और अनुभव के धरातल पर उतरते ही पता चलता है कि लघुकाय छन्द में अनुस्यूत भाव बहुत गहरे है और विभिन्न आयाम लिये हुए है । बहुरंगी प्रकृति हो या प्रेम की गहनता हो, परदु:ख कातरता हो या सामाजिक सरोकार हों , भावनात्मक सम्बन्ध हों या सांसारिक रिश्ते; डॉ भावना के कैमरे का फ़ोकस बहुत सधा हुआ और स्पष्ट नज़र आता है । कैमरा तो बहुतों के पास होता है पर उसे सही बिन्दु पर फ़ोकस करना सबके बस की बात नहीं ।हाइकु की बनावट और बुनावट के इन्द्रधनुषी अर्थों को खोलते हुए,जीवन के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और उसमें अन्तर्हित अर्थ तक पहँच बिना जीवन की आँच में तपे नहीं होती ।
प्रसिद्ध हाइकुकार डॉ सुधा गुप्ता के अनुसार -
अब भावना लेकर आईं हैं ,अपना दूसरा हाइकु-संग्रह जिसमें; 511 हाइकु हैं और प्रकृति की रम्य दृश्यावली के छवि-चित्रों की भरमार है ! अपने प्रथम हाइकु-संग्रह "तारों की चूनर" से ही भावना अपना प्रकृति-प्रेम प्रमाणित कर चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह में भी प्रकृति-नटी की एक बढ़कर एक चित्ताकर्षक नूतन भंगिमाएँ यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई पड़ती हैं कुछ चित्र-
रंग-पोटली/ हाथ से ज्यूँ फिसली/ बनी तितली ।
ढोल बजाते/ बैठ काले रथ पे/ बादल आते ।
नन्हीं बुँदियाँ /ठुमुक कर आतीं/ नाच दिखातीं ।
गेहूँ की बाली/ होकर मदहोश/ बजाए ताली ।
आँखमिचौली/ लहरों से खेलतीं/ किरणें भोली ।
पहने बैठी/ हीरे की नथुनी-सी/ फूल -पाँखुरी ।
हवा की अल्हड़ चंचलता और शोखी के क्या कहने-
भागती आई/ दुपट्टा गिरा कहीं/ चंचल हवा ।
छुड़ा न पाई/ कँटीली झाड़ियों से/ हवा दुपट्टा ।
कमाल की बात है कि हवा 'जादूगरनी' बन, हाइकुकार को 'बहका' कर किसी ओर लोक में ले जाती है-
बहका गई/ जादूगरनी बन/ देखो पवन ।
ये पुरवाई/ वतन की खुशबू/ लेकर आई।
दूर परदेस में बैठी लाडो बिटिया को अपनों से दूर होने का ग़म सालता है... वह आधुनिक निर्माण और नव्यता-प्रेमी परिवार-जन से याचना कर उठती है-
गिराओ मत/ माँ की खुशबू वाले/ पुराने आले ।