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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
 
<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अन्वेषण ('''रचनाकार:''' [[रामनरेश त्रिपाठी ]])</div>
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<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : गरीबी ! तू न यहाँ से जा.. ('''रचनाकार:''' [[कोदूराम दलित]])</div>
 
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मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
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गरीबी ! तू न यहाँ से जा
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥
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एक बात मेरी सुन, पगली
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बैठ यहाँ पर आ,
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
तू 'आह' बन किसी की, मुझको पुकारता था।
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चली जाएगी तू यदि तो दीनों के दिन फिर जाएँगे
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥
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मजदूर-किसान सुखी बनकर गुलछर्रे खूब उड़ाएँगे
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फिर कौन करेगा पूँजीपतियों ,की इतनी परवाह
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
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बेमौत मरेंगे बेचारे ये सेठ, महाजन, जमीनदार
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥
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धुल जाएगी यह चमक-दमक, ठंडा होगा सब कारबार
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रक्षक बनकर, भक्षक मत बन, तू इन पर जुलुम न ढा
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
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सारे गरीब नंगे रहकर दुख पाते हों तो पाने दे
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥
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दाने-दाने के लिए तरस मर जाते हों, मर जाने दे
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यदि मरे–जिए कोई तो इसमें तेरी गलती क्या
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
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यदि सुबह-शाम कुछ लोग व्यर्थ चिल्लाते हों, चिल्लाने दे
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥
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’हो पूँजीवाद विनाश’ आदि के नारे इन्हें लगाने दे
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है अपना ही अब राज-काज, तू गीत खुशी के गा
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
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यह अन्य देश नहीं, भारत है, समझाता हूँ मैं बार-बार
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥
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कर मौज यहीं रह करके तू, हिम्मत न हार, हिम्मत न हार
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मैं नेक सलाह दे रहा हूँ, तू बिल्कुल मत घबरा
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
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केवल धनिकों को छोड़ यहाँ पर सभी पुजारी तेरे हैं
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥
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तू भी तो  कहते आई है ’ये मेरे हैं, ये मेरे हैं’
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सदियों से जिनको अपनाया है, उन्हें न अब ठुकरा
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
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लाखों कुटियों के बीच खड़े आबाद रहें ये रंगमहल
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥
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आबाद रहें ये रंगरलियाँ, आबाद रहे यह चहल-पहल
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तू जा के पूंजीपतियों पर, आफ़त नई न ला
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
  
तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
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ये धनिक और निर्धन तेरे जाने से सम हो जाएँगे
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥
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तब तो परमेश्वर भी केवल समदर्शी ही कहलाएँगे
 
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फिर कौन कहेगा ’दीनबंधु’, उनको तू बतला
क्रीसस की 'हाय' में था, करता विनोद तू ही।
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गरीबी तू न यहाँ से जा...
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥
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(रचनाकाल  लगभग १९६५)
 
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प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
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तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥
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आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
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मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥
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कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
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हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥
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तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में।
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तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥
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तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
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तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥
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हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
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देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥
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कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
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मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥
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दुख में हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
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ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥
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08:00, 20 जून 2012 का अवतरण

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सप्ताह की कविता
शीर्षक : गरीबी ! तू न यहाँ से जा.. (रचनाकार: कोदूराम दलित)
गरीबी ! तू न यहाँ से जा
एक बात मेरी सुन, पगली
बैठ यहाँ पर आ,
गरीबी तू न यहाँ से जा...

चली जाएगी तू यदि तो दीनों के दिन फिर जाएँगे
मजदूर-किसान सुखी बनकर गुलछर्रे खूब उड़ाएँगे
फिर कौन करेगा पूँजीपतियों ,की इतनी परवाह
गरीबी तू न यहाँ से जा...

बेमौत मरेंगे बेचारे ये सेठ, महाजन, जमीनदार
धुल जाएगी यह चमक-दमक, ठंडा होगा सब कारबार
रक्षक बनकर, भक्षक मत बन, तू इन पर जुलुम न ढा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

सारे गरीब नंगे रहकर दुख पाते हों तो पाने दे
दाने-दाने के लिए तरस मर जाते हों, मर जाने दे
यदि मरे–जिए कोई तो इसमें तेरी गलती क्या
गरीबी तू न यहाँ से जा...

यदि सुबह-शाम कुछ लोग व्यर्थ चिल्लाते हों, चिल्लाने दे
’हो पूँजीवाद विनाश’ आदि के नारे इन्हें लगाने दे
है अपना ही अब राज-काज, तू गीत खुशी के गा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

यह अन्य देश नहीं, भारत है, समझाता हूँ मैं बार-बार
कर मौज यहीं रह करके तू, हिम्मत न हार, हिम्मत न हार
मैं नेक सलाह दे रहा हूँ, तू बिल्कुल मत घबरा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

केवल धनिकों को छोड़ यहाँ पर सभी पुजारी तेरे हैं
तू भी तो  कहते आई है ’ये मेरे हैं, ये मेरे हैं’
सदियों से जिनको अपनाया है, उन्हें न अब ठुकरा
गरीबी तू न यहाँ से जा...

लाखों कुटियों के बीच खड़े आबाद रहें ये रंगमहल
आबाद रहें ये रंगरलियाँ, आबाद रहे यह चहल-पहल
तू जा के पूंजीपतियों पर, आफ़त नई न ला
गरीबी तू न यहाँ से जा...

ये धनिक और निर्धन तेरे जाने से सम हो जाएँगे
तब तो परमेश्वर भी केवल समदर्शी ही कहलाएँगे
फिर कौन कहेगा ’दीनबंधु’, उनको तू बतला
गरीबी तू न यहाँ से जा...
(रचनाकाल  लगभग १९६५)