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1958 में जन्में अक़ील नोमानी अकील साहब बरेली जिले के एक छोटे से कस्बे मीरगंज में पिछले 27 सालों से रह रहे हैं.
 
1958 में जन्में अक़ील नोमानी अकील साहब बरेली जिले के एक छोटे से कस्बे मीरगंज में पिछले 27 सालों से रह रहे हैं.
यह शौक विरासत में मिला. दरअसल उनके वालिद वैसे तो साधारण काश्तकार थे, लेकिन मिज़ाज सूफियाना था सो उनके घर पर कव्वालियों, शेरो शायरी की महफिलें लगा करती थीं. यहीं कहीं से अकील को अदब से जुड़ाव हुआ और शायरी करने का हौसला मिला. यह हौसला हुनर में तब्दील हुआ 1976-78 के दौरान, जब वे पड़ोस के शहर रामपुर में आई0टी0आई0 करने गये. यहीं उनकी मुलाकात उस्ताद ज़लील नोमानी से हो गयी. उस्ताद ज़लील नोमानी से उन्होंने गज़ल कहने का हुनर सीखा. 1978 में सिचाई विभाग में नौकरी करने के बाद से वे लगातार गज़ल कहने से जुड़ गये और यह सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है. पत्रिकाओं आदि में भी तभी से छपना शुरू हो गये.  
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उन्हें शायरी का यह शौक विरासत में मिला. दरअसल उनके वालिद वैसे तो साधारण काश्तकार थे, लेकिन मिज़ाज सूफियाना था सो उनके घर पर कव्वालियों, शेरो शायरी की महफिलें लगा करती थीं. यहीं कहीं से अकील को अदब से जुड़ाव हुआ और शायरी करने का हौसला मिला. यह हौसला हुनर में तब्दील हुआ 1976-78 के दौरान, जब वे पड़ोस के शहर रामपुर में आई0टी0आई0 करने गये. यहीं उनकी मुलाकात उस्ताद ज़लील नोमानी से हो गयी. उस्ताद ज़लील नोमानी से उन्होंने गज़ल कहने का हुनर सीखा. 1978 में सिचाई विभाग में नौकरी करने के बाद से वे लगातार गज़ल कहने से जुड़ गये और यह सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है. पत्रिकाओं आदि में भी तभी से छपना शुरू हो गये.  
  
 
* मशहूर शायर प्रो0 [[वसीम बरेलवी]] के शब्दों में ‘‘अकील की शायरी में जिन्दगी की वो रमक मौजूद है, जो उन्हें नई सम्तों का एतबार बनायेगी.’’  
 
* मशहूर शायर प्रो0 [[वसीम बरेलवी]] के शब्दों में ‘‘अकील की शायरी में जिन्दगी की वो रमक मौजूद है, जो उन्हें नई सम्तों का एतबार बनायेगी.’’  
* उर्दू मुशायरों के प्रसिद्ध स्टेज संचालक [[मंसूर उस्मानी]] की नज़र में अक़ील नोमानी ने अपने मुख़्तसर से अदबी सफर में मील के वो पत्थर सर कर लिए हैं, जहाँ तक पहुँचते-पहुँचते कई फनकार थककर बैठ जाते हैं.  
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* उर्दू मुशायरों के प्रसिद्ध स्टेज संचालक मंसूर उस्मानी की नज़र में अक़ील नोमानी ने अपने मुख़्तसर से अदबी सफर में मील के वो पत्थर सर कर लिए हैं, जहाँ तक पहुँचते-पहुँचते कई फनकार थककर बैठ जाते हैं.  
 
* अकील साहब की हाल ही में प्रकाशित 'रह़गुजर' इसी बानगी को और भी पुख़्ता तरीके से पेश करती है. इस 'रहगुज़र' में उनकी 112 गज़ले हैं,
 
* अकील साहब की हाल ही में प्रकाशित 'रह़गुजर' इसी बानगी को और भी पुख़्ता तरीके से पेश करती है. इस 'रहगुज़र' में उनकी 112 गज़ले हैं,
 
* इससे पूर्व उनकी दो पुस्तकें ‘परवाज़ का मौसम’ व ‘सरमाया’ प्रकाशित हो चुकी हैं, उनकी स्क्रिप्ट उर्दू थीं.
 
* इससे पूर्व उनकी दो पुस्तकें ‘परवाज़ का मौसम’ व ‘सरमाया’ प्रकाशित हो चुकी हैं, उनकी स्क्रिप्ट उर्दू थीं.

19:00, 14 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

अकील नोमानी

1958 में जन्में अक़ील नोमानी अकील साहब बरेली जिले के एक छोटे से कस्बे मीरगंज में पिछले 27 सालों से रह रहे हैं. उन्हें शायरी का यह शौक विरासत में मिला. दरअसल उनके वालिद वैसे तो साधारण काश्तकार थे, लेकिन मिज़ाज सूफियाना था सो उनके घर पर कव्वालियों, शेरो शायरी की महफिलें लगा करती थीं. यहीं कहीं से अकील को अदब से जुड़ाव हुआ और शायरी करने का हौसला मिला. यह हौसला हुनर में तब्दील हुआ 1976-78 के दौरान, जब वे पड़ोस के शहर रामपुर में आई0टी0आई0 करने गये. यहीं उनकी मुलाकात उस्ताद ज़लील नोमानी से हो गयी. उस्ताद ज़लील नोमानी से उन्होंने गज़ल कहने का हुनर सीखा. 1978 में सिचाई विभाग में नौकरी करने के बाद से वे लगातार गज़ल कहने से जुड़ गये और यह सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है. पत्रिकाओं आदि में भी तभी से छपना शुरू हो गये.

  • मशहूर शायर प्रो0 वसीम बरेलवी के शब्दों में ‘‘अकील की शायरी में जिन्दगी की वो रमक मौजूद है, जो उन्हें नई सम्तों का एतबार बनायेगी.’’
  • उर्दू मुशायरों के प्रसिद्ध स्टेज संचालक मंसूर उस्मानी की नज़र में अक़ील नोमानी ने अपने मुख़्तसर से अदबी सफर में मील के वो पत्थर सर कर लिए हैं, जहाँ तक पहुँचते-पहुँचते कई फनकार थककर बैठ जाते हैं.
  • अकील साहब की हाल ही में प्रकाशित 'रह़गुजर' इसी बानगी को और भी पुख़्ता तरीके से पेश करती है. इस 'रहगुज़र' में उनकी 112 गज़ले हैं,
  • इससे पूर्व उनकी दो पुस्तकें ‘परवाज़ का मौसम’ व ‘सरमाया’ प्रकाशित हो चुकी हैं, उनकी स्क्रिप्ट उर्दू थीं.