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इलाहाबाद में निराला / बोधिसत्व

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भीड़ से घिरा खड़ा था<br>
वह दिशाहारा<br>
हर तरफ़ कुहरा घना था<br>
जाड़े की रात थी<br>
नीचे था पारा ।<br>
तन पर तहमद के अलावा<br>
कुछ नहीं था शेष<br>
जटा-जूट उलझी दाढ़ी<br>
चमरौधा पहने वह<br>
फिर रहा था मारा-मारा ।<br><br>
कई दिनों से भूखा था वह<br>
अपनों का दुत्कारा<br>
भूल गया था वह कैसे<br>
जाता है पुकारा ।<br><br>
वह चुप था नीची किए आँख<br>
सुनता था न समझता था,<br>
छाई थी चंहुदिस सघन रात ।<br><br>
कुछ ने पहचाना उसको<br>
कुछ ने कहा है मतवाला<br>
पर कोलाहाल में गूँज रहा था बस<br>
निराला...निराला...निराला ।<br>
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