त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदि, यौं मिलिहैं बनमाली ॥<br>
एकादस गीता श्रुति साखी, जिहि बिधि मुनि समुझाए ॥<br>
ते सँदेस श्रीमुख गोपिनि कौ, सूर सु मधुप सुनाए ॥116॥ ॥1॥ <br><br>
ऊधौ हमरी सौं तुम जाहु ।<br>
सब रस लै नँदलाल सिधारे , तुम पठए बड़ साहु ॥<br>
जोग बेचि कै तंदुल लीजै, बीच बसेरे खाहु ।<br>
सूरदास जबहीं उठी जैहौ, मिटिहै मन कौ दाहू ॥117॥॥2॥<br><br>
ऊधौ मौन साधि रहे ।<br>
कहा मैं कहि-कहि लजानी, नार रह्यौ नवाइ ॥<br>
प्रथम ही कहि बचन एकै, रह्यौ गुरु करि मानि ।<br>
सूर प्रभु मोकौ पठायौ, यहै कारन जानि ॥118॥ ॥3॥ <br><br>
मधुकर भली करी तुम आए ।<br>
अब वै स्याम कूबरी दोऊ, बने एक ही ताक ॥<br>
वै प्रभु बड़े सखा तुम उनके, जिनकै सुगम अनीति।<br>
या जमुना जल कौ सुभाव यह, सूर बिरह की प्रीति ॥119॥ ॥4॥ <br><br>
काहे कौं रोकत मारग सूधौ ।<br>
वेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ, जुवतिनि जोग कहूँ धौं ॥<br>
ताकौ कहा परेखौ कीजै, जानै छाँछ न दूधौ।<br>
सूर सूर अक्रूर गयौ लै ब्याज निबेरत ऊधौ ॥120॥ ॥5॥ <br><br>
ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी ।<br>
कम अबला अहीरि ब्रज-बासिनि, नाहीं परत सँभारी ॥<br>
को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा बिस्तारी ।<br>
सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अहि काँचुली उतारी ॥121॥ ॥6॥ <br><br>
वै बातैं जमुना-तीर की । <br>
देखि-देखि सब सखी पुकारतिं, अधिक जुड़ाई नीर की ॥<br>
दोउ हाथ जोरि करि माँगैं, ध्वाई नंद अहीर की ।<br>
सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की ॥122॥ ॥7॥ <br><br>
प्रेम न रुकत हमारे बूतैं ।<br>
बिरह-समुद्र सुखाइ कौन बिधि, रंचक जोग अगिनि के लूतैं ॥<br>
सुफलक सुत अरु तुम दोऊ मिलि, लीजै मुकुति हमारे हूतैं ।<br>
चाहतिं मिलन सूर के प्रभु कौं, क्यौं पतियाहिं तुम्हारे धूतैं ॥123॥॥8॥<br><br>
ऊधौ सुनहु नैकु जो बात ।<br>
जिन अधरनि अमृत फल चाख्यौ, ते क्यौं कटु फल खात ॥<br>
कुंकुम चंदन घसि तन लावतं, तिहिं न बिभूति सुहात ।<br>
सूरदास प्रभु बिनु हम यों हैं, ज्यौं तरु जीरन पात ॥124॥ ॥9॥ <br><br>
ऊधौ जोग हम नाहीं ।<br>
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, बिरह-अनल अति दाहीं ॥<br>
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तो है अप माहीं ।<br>
सूरस्याम तैं न्यारी न पल-छिन , ज्यौं घट तै परछाहीं ॥125॥ ॥10॥ <br><br>
हम तौ नंद-घोष के बासी ।<br>
राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी ॥<br>
मीत हमारे परम मनोहर, कमलनैन सुख रासी ।<br>
सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौं, अष्ट महा-सिधि दासी ॥126॥॥11॥<br><br>
यह गोकुल गोपाल उपासी ।<br>
अपनी सीतलता नहिं छाँड़त, जद्यपि बिधु भयौ राहु-गरासी ॥<br>
किहिं अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेम भगति तैं करत उदासी ।<br>
सूरदास ऐसी को बिरहनि, माँगि मुक्ति छाँड़ै गुन रासी ॥127॥ ॥12॥ <br><br>
ऐसौ सुनियत द्वै बैसाख ।<br>
जरत अगिनि मैं ज्यौं घृत नायौ, तन जरि ह्वै है राख ॥<br>
ता ऊपर लिखि जोग पठावत, खाहु नीम तजि दाख ।<br>
सूरदास ऊधौ की बतियाँ, सब उड़ि बैठीं ताख ॥128॥ ॥13॥ <br><br>
इहिं बिधि पावस सदा हमारैं ।<br>
ऊधव ये तब तैं अटके ब्रज, स्याम रहे हित टारैं ॥<br>
कहिऐ काहि सुनै कत कोऊ, या ब्रज के ब्यौहारैं ।<br>
तुमही सौं कहि-कहि पछितानी, सूर बिरह के धारैं ॥ 129॥ 14॥ <br><br>
ऊधौ कोकिल कूजत कानन ।<br>
कहा कथत मासी के आगैं, जानत नानी नानन ॥<br>
तुम तौ हमैं सिखावन आए, जोग होइ निरवानन ।<br>
सूर मुक्ति कैसैं पूजति है, वा मुरली के तानन ॥130॥ ॥15॥ <br><br>
हमतैं हरि कबहूँ न उदास ।<br>
बहिरौ तान-स्वाद कह जानै, गूँगौ बात मिठास ॥<br>
सुनि री सखी बहुरि हरि ऐहैं, वह सुख वहै बिलास ।<br>
सूरदास ऊधौ अब हमकौं, भाए तेरहौं मास ॥131॥ ॥16॥ <br><br>
आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।<br>
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खारे कूप कौ बारी ॥<br>
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ॥132॥ ॥17॥ <br><br>
ऊधौ जोग कहा है कीजतु ।<br>
प्रगट रूप की रासि मनोहर, क्यौं छाँड़े परतीति ॥<br>
गाइ चरावन गए घोष तैं, अबहीं हैं फिरि आवत ।<br>
सोई सूर सहाइ हमारे, बेनु रसाल बजावत ॥133॥ ॥18॥ <br><br>
अपने स्वारथ के सब कोऊ ।<br>
लीन्हे जोग फिरत जुवतिनि मैं, बड़े सुपत तुम दोऊ ॥<br>
छुटि गयौ मान परेखौ रे अलि, हृदै हुतौ वह जोऊ ।<br>
सूरदास प्रभु गोकुल बिसर्यौ, चित चिंतामनि खौऊ ॥134॥ ॥19॥ <br><br>
मधुकर प्रीति किये पछितानी ।<br>
जब तैं गवन कियौ मधुबन कौं, नैननि बरषत पानी ॥<br>
कहियौ जाइ स्याम सुंदर कौं, अंतरगत की जानी ।<br>
सूरदास प्रभु मिलि कै बिछुरे, तातें भई दिवानी ॥135॥ ॥20॥ <br><br>
हमारैं हरि हारिल की लकरी ।<br>
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी ।<br>
सुतौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी ।<br>
यह तौ सूर नितहिं ले सौंपौ, जिनके मन चकरी ॥136॥॥21॥<br><br>
कहा होत जो हरि हित चित धरि, एक बार ब्रज आवते ।<br>
इत तें उन हरि रहे अब तौ, कुबिजा भई पियारी ॥<br>
हिय मैं बातैं समुझि-समुझि कै, लोचन भरि-भरि आए ।<br>
सूर सनेही स्याम प्रीति के, ते अब भए पराए ॥137॥ ॥22॥ <br><br>
मधुकर आपुन होहिं बिराने ।<br>
छुटत हीं उड़ि मिलै अपुन कुल, प्रीति न पल ठहराने ॥<br>
जद्यपि मन नहिं तजत मनोहर, तद्यपि कपटी जाने ।<br>
सूरदास प्रभु कौन काज कौं, माखी मधु लपटाने ॥138॥॥23॥<br><br>
हरि तैं भलौ सुपति सीता कौ ।<br>
चढ़ै सेज सातौं सुधि बिसरी, ज्यौं पीता चीता कौ ॥<br>
करि अति कृपा जोग लिखि पठयौ, देखि डराईँ ताकौ ।<br>
सूरजदास प्रीति कह जानैं, लोभी नवनीता कौ ॥139॥ ॥24॥ <br><br>
ऊधौ क्यौं बिसरत वह नेह ।<br>
लिए उढ़ाइ कामरी मोहन, निज करि मानी देह ॥<br>
अब हमकौं लिखि-लिखि पठवत हैं जोग जुगुति तुम लेह ।<br>
सूरदास बिरहिनि क्यौं जीवैं कौन सयानप एहु ॥140॥ ॥25॥ <br>
ऊधौ मन माने की बात ।<br>
मधुप करत घर कोरि काठ मैं, बँधत कमल के पात ॥<br>
ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ, दीपक सौं लपटात ।<br>
सूरदास जाकौ मन जासौं, सोई ताहि सुहात ॥141॥ ॥26॥ <br><br>
इहिं डर बहुरि न गोकुल आए ।<br>
पकरि जसोदा पै लै जैहैं, नाचहु गावहु गीत ॥<br>
ग्वारिनि मोहिं बहुरि बाँधैगी, कैतव बचन सुनाइ ।<br>
वै दुख सूर सुमिरि मन ही मन, बहुरि सहै को जाइ ॥142॥ ॥27॥ <br><br>
जौ कोउ बिरहिनि कौ दुख जानै । <br>
चातक सदा स्वाति कौ सेवक, दुखित होत बिनु पानै ॥<br>
भौंर, कुरंग काग कोइल कौं, कविजन कपट बखानैं ।<br>
सूरदास जौ सरबस दीजै, कारै कृतहि न मानैं ॥143॥ ॥28॥ <br><br>
ऊधौ सुधि नाहीं या तन की ।<br>
हारी परीं बृंदावन ढूँढ़त, सुधि न मिली मोहन की ॥<br>
किए बिचार उपचार न लागत, कठिन बिथा भइ मन की ।<br>
सूरदास कोउ कहै स्याम सौं, सुरति करैं गोपिनि की ॥144॥ ॥29॥ <br><br>
लरिकाई की प्रेम कहौ अलि कैसैं छूटत । <br>
नटवर-भेष नंद-नंदन कौ वह विनोद, वह बन तैं आवनि ॥<br>
चरन कमल की सौंह करति हौं, यह संदेस मोहिं विष लागत ।<br>
सूरदास पल मोहिं न बिसरति, मोहन मूरति सोवत जागत ॥145॥ ॥30॥ <br><br>