भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कलगी बाजरे की / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अज्ञेय
 
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=हरी घास पर क्षण भर / अज्ञेय
+
|संग्रह=हरी घास पर क्षण भर / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}

10:45, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
 
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
 
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
 
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-
अगर मैं यह कहूं-
 
बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?
 
आज हम शहरातियों को
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से
सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली
बाजरे की।
 
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित
 
शब्द जादू हैं-
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?