भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुछ शेर / जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= जावेद अख़्तर |संग्रह= लावा / जावेद...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
(1)
 
(1)
पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत
+
पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत<ref>बतख</ref>
 
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।
 
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।
 
(2)
 
(2)

13:00, 23 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण

(1)
पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत<ref>बतख</ref>
पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।
(2)
जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है
कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।
(3)
बहुत आसान है पहचान इसकी
अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है
(4)
फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
(5)
जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।
(6)
मेरा आँगन कितना कुशादा<ref>फैला हुआ</ref> कितना बड़ा था
जिसमें मेरे सारे खेल समा जाते थे

शब्दार्थ
<references/>