"कबीर दोहावली / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
|सारणी=दोहावली / कबीर | |सारणी=दोहावली / कबीर | ||
}} | }} | ||
+ | <poem> | ||
+ | दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय । | ||
+ | जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥ | ||
− | + | तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । | |
− | + | कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥ | |
− | + | माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । | |
− | + | कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ | |
− | + | गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । | |
− | + | बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ | |
− | गुरु | + | बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । |
− | + | मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ | |
− | + | कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख । | |
− | + | माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ | |
− | + | सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । | |
− | + | कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ | |
− | + | साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय । | |
− | + | मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ | |
− | + | लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । | |
− | + | पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ | |
− | + | जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । | |
− | + | मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ | |
− | + | जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । | |
− | + | जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ | |
− | + | धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । | |
− | + | माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ | |
− | + | कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । | |
− | + | हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ | |
− | + | पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । | |
− | हरि | + | एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ |
− | + | कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । | |
− | + | जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ | |
− | + | शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । | |
− | + | तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ | |
− | + | माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । | |
− | + | आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ | |
− | + | माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । | |
− | + | एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ | |
− | + | रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । | |
− | + | हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ | |
− | + | नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । | |
− | + | और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ | |
− | + | जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । | |
− | + | तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ | |
− | + | दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । | |
− | + | तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥ | |
+ | |||
+ | आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । | ||
+ | एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ | ||
− | + | काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । | |
− | + | पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । | |
− | + | माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ | |
− | + | जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । | |
− | + | कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ | |
− | + | माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । | |
− | + | भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ | |
− | + | आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । | |
− | + | सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ | |
− | + | क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । | |
− | + | साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ | |
− | + | गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । | |
− | + | हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ | |
− | + | दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । | |
− | + | बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ | |
− | + | दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । | |
− | + | अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ | |
− | + | दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन । | |
− | + | रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ | |
− | + | ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । | |
− | + | औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ | |
− | + | हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । | |
− | + | बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ | |
− | + | कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । | |
− | + | साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ | |
− | + | जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । | |
− | + | यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ | |
− | + | मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । | |
− | + | मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ | |
− | + | सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । | |
− | + | यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ | |
− | + | अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । | |
− | + | मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ | |
− | + | बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । | |
− | + | नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ | |
− | + | अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । | |
− | + | चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ | |
− | + | कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । | |
− | + | ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ | |
− | + | पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । | |
− | + | पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ | |
− | + | बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । | |
− | + | एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ | |
− | बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । | + | |
− | एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ | + | |
− | हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । | + | हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । |
− | हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ | + | हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥ |
− | राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । | + | राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । |
− | रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ | + | रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥ |
− | जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । | + | जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच । |
− | वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ | + | वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥ |
− | तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । | + | तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । |
− | सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ | + | सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥ |
− | सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । | + | सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । |
− | प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ | + | प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ |
− | समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । | + | समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । |
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ | मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥ | ||
− | हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । | + | हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । |
− | जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ | + | जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ |
− | कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । | + | कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । |
− | एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ | + | एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ |
− | वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । | + | वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । |
− | बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ | + | बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ |
− | कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । | + | कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । |
− | चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ | + | चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ |
− | कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । | + | कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । |
− | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ | + | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ |
− | जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । | + | जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । |
− | सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ | + | सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥ |
− | साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । | + | साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । |
− | सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ | + | सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥ |
− | लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । | + | लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । |
− | मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ | + | मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥ |
− | भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । | + | भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । |
− | कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ | + | कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥ |
− | घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । | + | घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । |
− | बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ | + | बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥ |
− | अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । | + | अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । |
− | जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ | + | जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥ |
− | मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । | + | मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । |
− | तुम दाता दु:ख भंजना, | + | तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥ |
− | प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । | + | प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय । |
− | राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ | + | राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥ |
− | प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । | + | प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । |
− | लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ | + | लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥ |
− | सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । | + | सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । |
− | कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ | + | कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥ |
− | सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । | + | सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल । |
− | बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ | + | बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥ |
− | छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । | + | छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । |
− | हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ | + | हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥ |
− | ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । | + | ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग । |
− | तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ | + | तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥ |
− | जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । | + | जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । |
− | परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ | + | परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥ |
− | जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । | + | जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । |
− | मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ | + | मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥ |
− | नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । | + | नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । |
− | कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ | + | कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥ |
− | आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । | + | आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । |
− | नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ | + | नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥ |
− | जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । | + | जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । |
− | नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ | + | नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥ |
− | जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । | + | जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । |
− | माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ | + | माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥ |
− | दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । | + | दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । |
− | कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ | + | कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥ |
− | बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । | + | बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात । |
− | अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ | + | अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥ |
− | जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । | + | जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । |
− | कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ | + | कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥ |
− | फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । | + | फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । |
− | जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ | + | जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥ |
− | दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । | + | दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद । |
− | ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ | + | ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥ |
− | दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । | + | दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । |
− | सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ | + | सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥ |
− | जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । | + | जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । |
− | प्रेम गली अति साँकरी, ता | + | प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥ |
− | छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । | + | छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । |
− | अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ | + | अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥ |
− | जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । | + | जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । |
− | दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ | + | दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥ |
− | कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । | + | कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । |
− | टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ | + | टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥ |
− | ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । | + | ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय । |
− | नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ | + | नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥ |
− | सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । | + | सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । |
− | जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ | + | जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥ |
− | संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । | + | संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । |
− | कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ | + | कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥ |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । | |
− | + | यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ | |
− | + | जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश । | |
− | + | मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥ | |
− | + | काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय । | |
− | + | काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥ | |
− | + | सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । | |
− | + | शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥ | |
− | + | बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम । | |
− | + | कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥ | |
− | + | फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम । | |
− | + | कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥ | |
− | + | तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास । | |
− | + | कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥ | |
− | + | कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव । | |
− | + | कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥ | |
− | तन | + | कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । |
− | + | कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ | |
− | जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । | + | तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । |
− | मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ | + | कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ |
− | कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । | + | |
− | सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥ | + | जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । |
+ | मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ | ||
+ | |||
+ | कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । | ||
+ | सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥ | ||
[[कबीर दोहावली / पृष्ठ २|अगला भाग >>]] | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ २|अगला भाग >>]] |
12:15, 6 अप्रैल 2013 का अवतरण
पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ >> |
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥
सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥
दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥
लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो सम्हार ॥ 63 ॥
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥
दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥
दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥
अगला भाग >>