"गौरी-शंकर / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} {{KKCatKavita}} <poem> ससुरा...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | एक बार भोले शंकर से बोलीं हँस कर पार्वती, | |
− | + | 'चलो जरा विचरण कर आये,धरती पर कैलाशपती! | |
− | + | विस्मित थे शंकर कि उमा को बैठे-ठाले क्या सूझा, | |
− | + | कुछ कारण होगा अवश्य मन ही मन में अपने, बूझा! | |
− | + | 'वह अवंतिका पुरी तुम्हारी,बसी हुई शिप्रा तट पर, | |
− | + | वैद्यनाथ तुम,सोमेश्वर तुम, विश्वनाथ, हे शिव शंकर! | |
− | + | बहिन नर्मदा विनत चरण में अर्घ्य लिये, ओंकारेश्वर, | |
− | + | जल धारे सारी सरितायें, प्रभु, अभिषेक हेतु तत्पर! | |
− | + | इधर बहिन गंगा के तट पर देखें कैसा है जीवन, | |
− | + | यमुना के तटपर चल देखें मुरली-धर का वृन्दावन! | |
− | + | बहनों से मिलने को व्याकुल हुआ हृदय कैलाश पती! ' | |
− | + | शिव शंकर से कह बैठीं अनमनी हुई सी देवि सती! | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | जान रहे थे शंभु कि जनों के दुख से जुडी जगत- जननी, | |
− | + | जीव-जगत के हित- साधन को चल पडती मंगल करणी! | |
− | + | 'जैसी इच्छा, चलो प्रिये, आओ नंदी पर बैठो तुम, | |
− | + | पंथ सुगम हो देवि, तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं हम!' | |
− | + | ||
− | + | अटकाया डमरू त्रिशूल में ऊपर लटका ली झोली, | |
− | + | वेष बदल कर निकल पडे, शंकर की वाणी यह बोली - | |
− | + | 'जहाँ जहाँ मैं वहाँ वहाँ मुझसे अभिन्न सहचारिणि तुम, | |
− | + | हरसिद्धि, अंबा, कुमारिका, भाव तुम्हारे हैं अनगिन! | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | 'ग्राम-मगर के हर मन्दिर में नाम रूप नव- नव धरती!' | |
− | + | हिम शिखरों के महादेव यों कहें,'अपर्णा हेमवती! | |
− | + | मेकल सुता और कावेरी,याद कर रहीं तुम्हें सतत, | |
− | + | यहाँ तुम्हारा मन व्याकुल हो उसी प्रेमवश हुआ विवश! ' | |
− | + | ||
− | + | उतरे ऊँचे हिम-शिखरों से रम्य तलहटी में आये, | |
− | + | घन तरुओं की हरीतिमा में प्रीतिपूर्वक बिलमाये! | |
− | + | आगे बढते जन-जीवन को देख-देख कर हरषाते, | |
− | + | नंदी पर माँ उमा विराजें, शिव डमरू को खनकाते! | |
− | + | ||
− | + | हँसा देख कर एक पथिक,'देखो रे कलियुग की माया, | |
− | + | पति धरती पर पैदल चलता,चढी हुई ऊपर जाया!' | |
+ | रुकीं उमा उतरीं नंदी से, बोलीं,'बैठो परमेश्वर! | ||
+ | मैं पैदल ही भली कि कोई जन उपहास न पाये कर!' | ||
+ | |||
+ | 'इच्छा पूरी होय तुम्हारी, 'शिव ने मान लिया झट से, | ||
+ | नंदी पर चढ गये सहज ही अपने गजपट को साधे! | ||
+ | आगे आगे चले जा रहे इस जन संकुल धरती पर, | ||
+ | खेत और खलिहान, कार्य के उपक्रम में सब नारी नर! | ||
+ | |||
+ | उँगली उनकी ओर उठा कर दिखा रहा था एक जना, | ||
+ | कोमल नारी धरती पर, मुस्टंड बैल पर बैठ तना!' | ||
+ | 'देख लिया, सुन लिया?' खिन्न वे उतरे नंदी खडा रहा, | ||
+ | उधर संकुचित पार्वती ने सुना कि जो कुछ कहा गया! | ||
+ | |||
+ | 'हम दोनों चढ चलें चलो, अब इसमें कुछ अन्यथा नहीं । | ||
+ | शंकर झोली टाँगे आगे फिर जग -जननि विराज रहीं! | ||
+ | दोनों को ले मुदित हृदय से मंथर गति चलता नंदी, | ||
+ | हरे खेत सजते धरती पर बजती चैन भरी बंसी! | ||
+ | |||
+ | 'कैसे निर्दय चढ बैठे हैं,स्वस्थ सबल दोनों प्राणी, | ||
+ | बूढा बैल ढो रहा बोझा,उसकी पीर नहीं जानी!' | ||
+ | ह-सुन कर बढ गये लोग,हतबुद्धि उमा औ' शंभु खडे, | ||
+ | कान हिलाता वृषभ ताकता दोनो के मुख, मौन धरे! | ||
+ | |||
+ | 'चलो, चलो रे नंदी, पैदल साथ साथ चलते हैं हम, | ||
+ | संभव है इससे ही समाधान पा जाये जन का मन!' | ||
+ | जब शंकर से उस दिन बोलीं आदि शक्ति माँ धूमवती, | ||
+ | चलो,जरा चल कर तो देखें कैसी है अब यह धरती! | ||
+ | |||
+ | हा,हा हँसते लोग मिल गये उन्हें पंथ चलते-चलते, | ||
+ | पुष्ट बैल है साथ देख ले. पर दोनों पैदल चलते, | ||
+ | जड मति का ऐसा उदाहरण, और कहीं देखा है क्या?' | ||
+ | वे तो चलते बने किन्तु, रह गये शिवा - शिव चक्कर खा! | ||
+ | |||
+ | 'कैसे भी तो चैन नहीं दुनिया को,देखा पार्वती | ||
+ | अच्छा था उस कजरी वन में परम शान्ति से तुम रहतीं!' | ||
+ | 'सबकी अपनी-अपनी मति,क्यों सोच हो रहा देव, तुम्हें, | ||
+ | उनको चैन कहाँ जो सबमें केवल त्रुटियाँ ही ढूँढे! | ||
+ | |||
+ | दुनिया है यह यहाँ नहीं प्रतिबन्ध किसी की जिह्वा पर, | ||
+ | चुभती बातें कहते ज्यों ही पा जाते कोई अवसर! | ||
+ | अज्ञानी हैं नाथ, इन्हें कहने दो,जो भी ये समझें, | ||
+ | निरुद्विग्न रह वही करें हम, जो कि स्वयं को उचित लगे! | ||
+ | |||
+ | कभी बुद्धि निर्मल होगी जो छलमाया में भरमाई! | ||
+ | इनकी शुभ वृत्तियाँ जगाने मैं,हिमगिरि से चल आई, | ||
+ | ये अबोध अनजान निरे,दो क्षमा -दान हे परमेश्वर! | ||
+ | जागें सद्- विवेक वर दे दो विषपायी हे,शिवशंकर! ' | ||
+ | भोले शंकर से बोलीं परमेश्वरि दुर्गा महाव्रती! | ||
+ | अपनी कल्याणी करुणा से सिंचित करतीं यह जगती, | ||
</poem> | </poem> |
10:51, 19 मई 2013 के समय का अवतरण
एक बार भोले शंकर से बोलीं हँस कर पार्वती,
'चलो जरा विचरण कर आये,धरती पर कैलाशपती!
विस्मित थे शंकर कि उमा को बैठे-ठाले क्या सूझा,
कुछ कारण होगा अवश्य मन ही मन में अपने, बूझा!
'वह अवंतिका पुरी तुम्हारी,बसी हुई शिप्रा तट पर,
वैद्यनाथ तुम,सोमेश्वर तुम, विश्वनाथ, हे शिव शंकर!
बहिन नर्मदा विनत चरण में अर्घ्य लिये, ओंकारेश्वर,
जल धारे सारी सरितायें, प्रभु, अभिषेक हेतु तत्पर!
इधर बहिन गंगा के तट पर देखें कैसा है जीवन,
यमुना के तटपर चल देखें मुरली-धर का वृन्दावन!
बहनों से मिलने को व्याकुल हुआ हृदय कैलाश पती! '
शिव शंकर से कह बैठीं अनमनी हुई सी देवि सती!
जान रहे थे शंभु कि जनों के दुख से जुडी जगत- जननी,
जीव-जगत के हित- साधन को चल पडती मंगल करणी!
'जैसी इच्छा, चलो प्रिये, आओ नंदी पर बैठो तुम,
पंथ सुगम हो देवि, तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं हम!'
अटकाया डमरू त्रिशूल में ऊपर लटका ली झोली,
वेष बदल कर निकल पडे, शंकर की वाणी यह बोली -
'जहाँ जहाँ मैं वहाँ वहाँ मुझसे अभिन्न सहचारिणि तुम,
हरसिद्धि, अंबा, कुमारिका, भाव तुम्हारे हैं अनगिन!
'ग्राम-मगर के हर मन्दिर में नाम रूप नव- नव धरती!'
हिम शिखरों के महादेव यों कहें,'अपर्णा हेमवती!
मेकल सुता और कावेरी,याद कर रहीं तुम्हें सतत,
यहाँ तुम्हारा मन व्याकुल हो उसी प्रेमवश हुआ विवश! '
उतरे ऊँचे हिम-शिखरों से रम्य तलहटी में आये,
घन तरुओं की हरीतिमा में प्रीतिपूर्वक बिलमाये!
आगे बढते जन-जीवन को देख-देख कर हरषाते,
नंदी पर माँ उमा विराजें, शिव डमरू को खनकाते!
हँसा देख कर एक पथिक,'देखो रे कलियुग की माया,
पति धरती पर पैदल चलता,चढी हुई ऊपर जाया!'
रुकीं उमा उतरीं नंदी से, बोलीं,'बैठो परमेश्वर!
मैं पैदल ही भली कि कोई जन उपहास न पाये कर!'
'इच्छा पूरी होय तुम्हारी, 'शिव ने मान लिया झट से,
नंदी पर चढ गये सहज ही अपने गजपट को साधे!
आगे आगे चले जा रहे इस जन संकुल धरती पर,
खेत और खलिहान, कार्य के उपक्रम में सब नारी नर!
उँगली उनकी ओर उठा कर दिखा रहा था एक जना,
कोमल नारी धरती पर, मुस्टंड बैल पर बैठ तना!'
'देख लिया, सुन लिया?' खिन्न वे उतरे नंदी खडा रहा,
उधर संकुचित पार्वती ने सुना कि जो कुछ कहा गया!
'हम दोनों चढ चलें चलो, अब इसमें कुछ अन्यथा नहीं ।
शंकर झोली टाँगे आगे फिर जग -जननि विराज रहीं!
दोनों को ले मुदित हृदय से मंथर गति चलता नंदी,
हरे खेत सजते धरती पर बजती चैन भरी बंसी!
'कैसे निर्दय चढ बैठे हैं,स्वस्थ सबल दोनों प्राणी,
बूढा बैल ढो रहा बोझा,उसकी पीर नहीं जानी!'
ह-सुन कर बढ गये लोग,हतबुद्धि उमा औ' शंभु खडे,
कान हिलाता वृषभ ताकता दोनो के मुख, मौन धरे!
'चलो, चलो रे नंदी, पैदल साथ साथ चलते हैं हम,
संभव है इससे ही समाधान पा जाये जन का मन!'
जब शंकर से उस दिन बोलीं आदि शक्ति माँ धूमवती,
चलो,जरा चल कर तो देखें कैसी है अब यह धरती!
हा,हा हँसते लोग मिल गये उन्हें पंथ चलते-चलते,
पुष्ट बैल है साथ देख ले. पर दोनों पैदल चलते,
जड मति का ऐसा उदाहरण, और कहीं देखा है क्या?'
वे तो चलते बने किन्तु, रह गये शिवा - शिव चक्कर खा!
'कैसे भी तो चैन नहीं दुनिया को,देखा पार्वती
अच्छा था उस कजरी वन में परम शान्ति से तुम रहतीं!'
'सबकी अपनी-अपनी मति,क्यों सोच हो रहा देव, तुम्हें,
उनको चैन कहाँ जो सबमें केवल त्रुटियाँ ही ढूँढे!
दुनिया है यह यहाँ नहीं प्रतिबन्ध किसी की जिह्वा पर,
चुभती बातें कहते ज्यों ही पा जाते कोई अवसर!
अज्ञानी हैं नाथ, इन्हें कहने दो,जो भी ये समझें,
निरुद्विग्न रह वही करें हम, जो कि स्वयं को उचित लगे!
कभी बुद्धि निर्मल होगी जो छलमाया में भरमाई!
इनकी शुभ वृत्तियाँ जगाने मैं,हिमगिरि से चल आई,
ये अबोध अनजान निरे,दो क्षमा -दान हे परमेश्वर!
जागें सद्- विवेक वर दे दो विषपायी हे,शिवशंकर! '
भोले शंकर से बोलीं परमेश्वरि दुर्गा महाव्रती!
अपनी कल्याणी करुणा से सिंचित करतीं यह जगती,