कितनी रातें आनन्दोत्सव-आयोजन।
रावण करता था मन प्रसन्न करने को,
उन्मन सी,सपने जैसी मन की स्थिति में कुछ बोल न पाती,स्वयं व्यक्त करने को!
वह निरुद्विग्न हो पूर्ण हुई-सी, बैठी,
बढती जाती थी ओज-तेज से संयुत!
फूलों सा हल्कापन लगता तन-मन में,
वाणी में नव- स्वर नव- रस सा भर जाता,
जैसे कि तपस्या फलीभूत हो जाये,
मयकन्या का था उदर वृद्धि ही पाता!
जीवन बुनती कुछ नूतन प्रतिमानो का!
स्वामिनि के साथ निरन्तर रह छाया-सी,
त्रिजटा कुछ समझ रही, ,कुछ जान रही थी,
कुछ भय- संशय, कुछ चिन्ता से परिपूरित,
उस विषम परिस्थिति को अनुमान रही थी!