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हवा का ज़ोर वर्षा की झरी, झाड़ों का गिर पड़ना
 
कहीं गरजन का जाकर दूर सिर के पास फिर पड़ना
 
उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना
 
ध्‍वजा की तरह बिजली का दिशाओं में फहर उठना
 
ये वर्षा के अनोखे दृष्‍य जिसको प्राण से प्‍यारे
 
जो चातक की तरह ताकता है बादल घने कजरारे
 जो भूखा रहकर, धरती चिरकर चीरकर जग को खिलाता है 
जो पानी वक्‍त पर आए नहीं तो तिलमिलाता है
 
अगर आषाढ़ के पहले दिवस के प्रथम इस क्षण में
 
वही हलधर अधिक आता है, कालिदास के मन में
 
तू मुझको क्षमा कर देना।
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