"कफ़न है आसमान / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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जी रहा है प्यास पी-२ कर जहान। | जी रहा है प्यास पी-२ कर जहान। | ||
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अश्रु जीवन में अमृत से भी महान। | अश्रु जीवन में अमृत से भी महान। | ||
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कब्र है धरती, कफ़न है आसमान। | कब्र है धरती, कफ़न है आसमान। | ||
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देह की दुकान जिस पर काल का अधिकार | देह की दुकान जिस पर काल का अधिकार | ||
रात को होगा सभी जब लेन-देन समाप्त | रात को होगा सभी जब लेन-देन समाप्त | ||
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फ़ूल के शव पर खड़ा है बागबान। | फ़ूल के शव पर खड़ा है बागबान। | ||
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कब्र है धरती, कफ़न है आसमान। | कब्र है धरती, कफ़न है आसमान। | ||
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11:24, 6 मार्च 2014 के समय का अवतरण
मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।
हर पखेरू का यहाँ है नीड़ मरघट पर
है बँधी हर एक नैया, मृत्यु के तट पर
खुद बखुद चलती हुई ये देह अर्थी है
प्राण है प्यासा पथिक संसार-पनघट पर
किसलिए फ़िर प्यास का अपमान?
जी रहा है प्यास पी-२ कर जहान।
मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।
भूमि से, नभ से, नरक से, स्वर्ग से भी दूर
हो कहीं इन्सान, पर है मौत से मजबूर
धूर सब कुछ, इस मरण की राजधानी में
सिर्फ़ अक्षय है, किसी की प्रीति का सिन्दूर
किसलिए फ़िर प्यार का अपमान?
प्यार है तो ज़िन्दगी हरदम जवान।
मत करो प्रिय ! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।
रंक-राजा, मूर्ख-पंडित, रूपवान-कुरूप
साँझ बनती है सभी की ज़िन्दगी की धूप
आखिरी सब की यहाँ पर, है चिता की सेज
धूल ही श्रृंगार अन्तिम, अन्त-रूप अनूप
किसलिए फ़िर धूल का अपमान?
धूल हम-तुम, धूल है सब की समान।
मत करो प्रिय ! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।
एक भी देखा न ऐसा फ़ूल इस जग में
जो नहीं पथ पर चुभा हो, शूल बन पग में
सब यहीं छूटा पिया घर, जब चली डोली
एक आँसू ही रहा बस, साथ दृग-मग में
किसलिए फ़िर अश्रु का अपमान?
अश्रु जीवन में अमृत से भी महान।
मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।
प्राण! जीवन क्या क्षणिक बस साँस का व्यापार
देह की दुकान जिस पर काल का अधिकार
रात को होगा सभी जब लेन-देन समाप्त
तब स्वयं उठ जाएगा यह रूप का बाज़ार
किसलिए फ़िर रूप का अभिमान?
फ़ूल के शव पर खड़ा है बागबान।
मत करो प्रिय! रूप का अभिमान
कब्र है धरती, कफ़न है आसमान।