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"सजीवन जड़ी / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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12:15, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 दुख बने वह अजब नशा जिस में।

मौत का रूप रंग ही भावे।

जाति-हित के लिए मरें हँसते।

आह निकले न, दम निकल जावे।

काम लेते जो विचारों से रहे।

हाथ वे बेसमझियों के कब बिके।

जो छिंके जी की कचाई से नहीं।

छेंकने से छीेंक वे+ वे कब छिंके।

हौसलेवाले हिचिकते ही नहीं।

राह चाहे ठीक या बेठीक हो।

हो सगुन या काम असगुन से पड़े।

दाहिने हो या कि बायें छींक हो।

पड़ गये हो उधोड़बुन में क्यों।

तुम गये बार बार बीछे हो।

कब सके बीर पाँव पीछे रख।

सैकड़ों छींक क्यों न पीछे हो।

करतबी की देख नाकाबंदियाँ।

छक गई सी है निकल पाती नहीं।

छींकनेवाले करें तो क्या करें।

छींकते हैं छींक ही आती नहीं।

दूर अंधाधुंधा जिस से हो सके।

बाँधा कर के धुन वही धांधा करें।

जाति की औ देस की सेवा सदा।

लोग कंधो से मिला कंधा करें।

बीज जब थे बिगाड़ का बोते।

किस तरह प्यार बेलि उग पाती।

जब कि हम बात बात में बिगड़े।

बात वै+से न तब बिगड़ जाती।

जब मनाने ही हमें आता नहीं।

तब सकेंगे किस तरह से हम मना।

कब भला बनती किसी से है बने।

बात बनती ही नहीं बातें बना।

मान, जिनका मान रखकर के मिला।

मत बिगाड़ो मान का उन के धुरा।

है बिना हारे हराना आप को।

है बड़ों की बात दोहराना बुरा।

तब बखेड़े किस तरह उठते नहीं।

जब बखेड़ों का रहा जी में न डर।

बात तब वै+से भला बढ़ती नहीं।

बात बढ़ बढ़ कर, रहे करते अगर।

क्यों नहीं तब जायगा कोई उखड़।

बात हम उखड़ी हुई जब कहेंगे।

रिस लहर वै+से न तब बढ़ जायगी।

बात को जब हम बढ़ाते रहेंगे।

है बहुत वाजिब बहुत ही ठीक है।

बाँट में बेढंग के जो पड़ गई।

तब भला वह किस तरह जी में जमे।

जब बताई बात ही बेजड़ गई।

तो उछल वू+द क्या रहे करते।

जो किया छोड़ छल न देस भला।

सब बला टाल देस के सिर की।

जो कलेजा न बिüयों उछला।

जाति-हित की अगर लगी लौ है।

तो करें काम बेबहा हाथों।

हौसला हो छलक रहा दिल में।

हो कलेजा उछल रहा हाथों।

लोक-हित में कब लगे जी जान से।

कब लगा प्यारा न परहित से टका।

देस सुख मुख देख कमलों सा खिला।

कब कलेजा है उछल बाँसों सका।

हो भला, वह हो भलाई से भरा।

भाव जो जी में जगाने से जगे।

जातिहित जनहित जगतहित में उमग।

जी लगायें जो लगाने से लगे।

क्यों सितम पर सितम न हो हम पर।

क्यों बला पर बला न आ जाये।

घेर घबराहटें न लें हम को।

जी हमारा न नेक घबराये।

क्या नहीं हाथ पाँव हम रखते।

एक बेपीर क्यों हमें पीसे।

फिर हमें जो लगी तो क्या।

आज भी जो लगी नहीं जी से।

जी ठिकाने है अगर रहता नहीं।

चुटकियों पर तो मुहिम होगी न सर।

तो उड़ेंगे फूँक से दुखड़े नहीं।

जी हमारा है उड़ा रहता अगर।

सूरमा साहस दिखा कर सौगुना।

कौन सा पाला नहीं है मारता।

तो हरायें भूलकर उस को न हम।

जी हराये ही अगर है हारता।

चोचलों की चली नहीं सब दिन।

काम का ही जहान है खोजी।

अब नहीं लाड़ प्यार के दिन हैं।

जी लड़ायें लड़ा सकें जो जी।

है अगर आगे निकलना चाहता।

तो किसे पीछे नहीं है छोड़ता।

देख लेवें लोग दौड़ा कर उसे।

दौड़ने पर जी बहुत है दौड़ता।

धीर होते कभी अधीर नहीं।

क्यों न सिर बिपत बितान तने।

हाथ का आँवला न है अवसर।

बावला मन उतावला न बने।

काम से मोड़ें न मुँह, तोड़ें न दम।

चाम तन का क्यों न छन छन परछिले।

हिल गये दिल भी न, हिलना चाहिए।

जाँय हिल क्यों पेट का पानी हिले।

जो गिरें टूट टूट तन रोयें।

जग उठें और जाति जय बोलें।

बन अमर देस-हित रहें करते।

मर मिटें पर कमर न हम खोलें।

फूट घर में न पै+लने पावे।

फूट कर भी न आँख फूट सके।

टूट में जाय पड़ नहीं कोई।

टूट कर भी कमर न टूट सके।

सब दिनों दुख पीसता जिन को रहा।

मुँह पराया ताककर ही वे पिसे।

वह कमाई कर कभी हारा नहीं।

जाँघ का अपनी सहारा है जिसे।

वह जिसे सामने सदा लाई।

है नहीं अंत उस समाई का।

नाम कर काम का बना देना।

काम है जाँघ की कमाई का।

जी लगा काम औ कमाई कर।

हो गये कामयाब माहिर सब।

हैं जवाहिर न जौहरी के घर।

जाँघ में हैं भरे जवाहिर सब।

छल कपट के हाथ से छूटे रहें।

पाँव मेरे तो कहीं वै+से छिकें।

कर न दें तलबेलियाँ बेकार तो।

धार पर तलवार की तलवे टिकें।