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"रहीम दोहावली - 5" के अवतरणों में अंतर

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[[Category:दोहे]]उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । <BR/>
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सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>
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उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान।
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सावन दिन मनभावन, करत पयान॥401॥
  
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम । <BR/>
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समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>
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बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम॥402॥
  
उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर । <BR/>
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उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>
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मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर॥403॥
  
सुगमहि गातहि गारन, जारन देह । <BR/>
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सुगमहि गातहि गारन, जारन देह।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>
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अगम महा अति पारन, सुघर सनेह॥404॥
  
मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार । <BR/>
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मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>
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बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार॥405॥
  
झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह । <BR/>
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झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>
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त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह॥406॥
झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात । <BR/>
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फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>
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डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार । <BR/>
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झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>
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फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात॥407॥
  
कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय । <BR/>
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डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>
+
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार॥408॥
  
जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ । <BR/>
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कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>
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मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय॥409॥
  
मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ । <BR/>
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जबते आयौ सजनी, मास असाढ़।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>
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जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़॥410॥
  
वेद पुरान बखानत, अधम उधार । <BR/>
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मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>
+
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़॥411॥
  
लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर । <BR/>
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वेद पुरान बखानत, अधम उधार।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>
+
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार॥412॥
  
लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस । <BR/>
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लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>
+
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर॥413॥
  
बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव । <BR/>
+
लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>
+
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस॥414॥
  
भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग । <BR/>
+
बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>
+
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव॥415॥
  
भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार । <BR/>
+
भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>
+
संग रहत या तन की, छाँही भाग॥416॥
जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग । <BR/>
+
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>
+
  
जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस । <BR/>
+
भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>
+
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार॥417॥
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जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग।
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हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग॥418॥
  
देखन ही को निसदिन, तरफत देह । <BR/>
+
जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>
+
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास॥419॥
  
कब तें देखत सजनी, बरसत मेह । <BR/>
+
देखन ही को निसदिन, तरफत देह।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>
+
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह॥420॥
  
विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि । <BR/>
+
कब तें देखत सजनी, बरसत मेह।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>
+
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह॥421॥
  
उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि । <BR/>
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विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>
+
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि॥422॥
  
भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार । <BR/>
+
उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>
+
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि॥423॥
  
हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक । <BR/>
+
भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>
+
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार॥424॥
  
इन बातन कछु होत न, कहो हजार । <BR/>
+
हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>
+
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक॥425॥
  
कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति । <BR/>
+
इन बातन कछु होत न, कहो हजार।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>
+
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार॥426॥
  
बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर । <BR/>
+
कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>
+
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति॥427॥
भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि । <BR/>
+
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>
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अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार । <BR/>
+
बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>
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लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर॥428॥
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भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि।
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कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि॥429॥
  
घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय । <BR/>
+
अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>
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ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार॥430॥
  
नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं । <BR/>
+
घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>
+
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय॥431॥
  
सहज हँसोई बातें, होत चवाइ । <BR/>
+
नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>
+
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि॥432॥
  
ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह । <BR/>
+
सहज हँसोई बातें, होत चवाइ।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>
+
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ॥433॥
  
मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय । <BR/>
+
ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>
+
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह॥434॥
  
अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात । <BR/>
+
मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>
+
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय॥435॥
  
निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात । <BR/>
+
अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>
+
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात॥436॥
  
बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान । <BR/>
+
निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>
+
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात॥437॥
  
जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात । <BR/>
+
बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>
+
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान॥438॥
ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान । <BR/>
+
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>
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मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात । <BR/>
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जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>
+
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात॥439॥
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ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान।
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ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान॥440॥
  
जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन । <BR/>
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मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>
+
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात॥441॥
  
कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय । <BR/>
+
जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>
+
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन॥442॥
  
जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ । <BR/>
+
कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>
+
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय॥443॥
  
मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक । <BR/>
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जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>
+
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ॥444॥
  
गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक । <BR/>
+
मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>
+
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक॥445॥
  
होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि । <BR/>
+
गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>
+
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक॥446॥
  
दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू । <BR/>
+
होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>
+
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि॥447॥
  
जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं । <BR/>
+
दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>
+
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक॥448॥
  
उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार । <BR/>
+
जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>
+
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं॥449॥
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । <BR/>
+
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>
+
  
जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस । <BR/>
+
उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>
+
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार॥450॥
 +
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान।
 +
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन॥451॥
  
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय । <BR/>
+
जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>
+
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस॥452॥
  
तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात । <BR/>
+
चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>
+
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय॥453॥
  
और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह । <BR/>
+
तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>
+
होरि के त्यौहारन, पीहर जात॥454॥
  
जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास । <BR/>
+
और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>
+
देखन ही को निसदिन, तरफत देह॥455॥
  
अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान । <BR/>
+
जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>
+
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास॥456॥
  
गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप । <BR/>
+
अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>
+
विष सम परम सबन तें, लोचन बान॥457॥
  
सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय । <BR/>
+
गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>
+
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप॥458॥
  
उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज । <BR/>
+
सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>
+
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय॥459॥
  
जिहिके लिये जगत में, बजै निसान । <BR/>
+
उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>
+
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज॥460॥
रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर । <BR/>
+
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>
+
  
विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय । <BR/>
+
जिहिके लिये जगत में, बजै निसान।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>
+
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान॥461॥
 +
रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर।
 +
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर॥462॥
  
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर । <BR/>
+
विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>
+
पीर पराई जानै, तब कहु कोय॥463॥
  
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान । <BR/>
+
सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>
+
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर॥464॥
  
तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ । <BR/>
+
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥ <BR/><BR/>
+
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान॥465॥
  
मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार । <BR/>
+
तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥ <BR/><BR/>
+
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई॥466॥
  
नव नागर पद परसी, फूलत जौन । <BR/>
+
मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>
+
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार॥467॥
  
समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति । <BR/>
+
नव नागर पद परसी, फूलत जौन।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥ <BR/><BR/>
+
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन॥468॥
  
नृप जोगी सब जानत, होत बयार । <BR/>
+
समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥ <BR/><BR/>
+
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति॥469॥
  
मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन । <BR/>
+
नृप जोगी सब जानत, होत बयार।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥ <BR/><BR/>
+
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार॥470॥
  
भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस । <BR/>
+
मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>
+
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन॥471॥
गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार । <BR/>
+
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥ <BR/><BR/>
+
  
दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह । <BR/>
+
भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥ <BR/><BR/>
+
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस॥472॥
 +
गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार।
 +
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार॥473॥
  
लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग । <BR/>
+
दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥ <BR/><BR/>
+
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह॥474॥
  
मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि । <BR/>
+
लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥ <BR/><BR/>
+
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग॥475॥
  
होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय । <BR/>
+
मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/>
+
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि॥476॥
  
अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर । <BR/>
+
होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥ <BR/><BR/>
+
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय॥477॥
  
आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि । <BR/>
+
अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥ <BR/><BR/>
+
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर॥478॥
  
पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव । <BR/>
+
आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥ <BR/><BR/>
+
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि॥479॥
  
या झर में घर घर में, मदन हिलोर । <BR/>
+
पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥ <BR/><BR/>
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पैया परों ननदिया, फेरि कहाव॥480॥
  
बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि । <BR/>
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या झर में घर घर में, मदन हिलोर।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ <BR/><BR/>
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पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर॥481॥
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बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि।
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हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि॥482॥
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08:01, 15 मई 2014 का अवतरण

उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान।
सावन दिन मनभावन, करत पयान॥401॥

समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम॥402॥

उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर॥403॥

सुगमहि गातहि गारन, जारन देह।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह॥404॥

मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार॥405॥

झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह॥406॥

झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात॥407॥

डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार॥408॥

कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय॥409॥

जबते आयौ सजनी, मास असाढ़।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़॥410॥

मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़॥411॥

वेद पुरान बखानत, अधम उधार।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार॥412॥

लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर॥413॥

लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस॥414॥

बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव॥415॥

भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग।
संग रहत या तन की, छाँही भाग॥416॥

भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार॥417॥
जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग॥418॥

जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास॥419॥

देखन ही को निसदिन, तरफत देह।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह॥420॥

कब तें देखत सजनी, बरसत मेह।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह॥421॥

विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि॥422॥

उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि॥423॥

भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार॥424॥

हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक॥425॥

इन बातन कछु होत न, कहो हजार।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार॥426॥

कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति॥427॥

बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर॥428॥
भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि।
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि॥429॥

अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार॥430॥

घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय॥431॥

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि॥432॥

सहज हँसोई बातें, होत चवाइ।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ॥433॥

ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह॥434॥

मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय॥435॥

अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात॥436॥

निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात॥437॥

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान॥438॥

जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात॥439॥
ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान।
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान॥440॥

मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात॥441॥

जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन॥442॥

कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय॥443॥

जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ॥444॥

मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक॥445॥

गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक॥446॥

होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि॥447॥

दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक॥448॥

जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं॥449॥

उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार॥450॥
मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन॥451॥

जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस॥452॥

चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय॥453॥

तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात॥454॥

और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह॥455॥

जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास॥456॥

अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान॥457॥

गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप॥458॥

सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय॥459॥

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज॥460॥

जिहिके लिये जगत में, बजै निसान।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान॥461॥
रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर।
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर॥462॥

विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय॥463॥

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर॥464॥

लखि मोहन की बंसी, बंसी जान।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान॥465॥

तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई॥466॥

मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार॥467॥

नव नागर पद परसी, फूलत जौन।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन॥468॥

समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति॥469॥

नृप जोगी सब जानत, होत बयार।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार॥470॥

मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन॥471॥

भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस॥472॥
गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार।
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार॥473॥

दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह॥474॥

लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग॥475॥

मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि॥476॥

होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय॥477॥

अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर॥478॥

आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि॥479॥

पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव॥480॥

या झर में घर घर में, मदन हिलोर।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर॥481॥

बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि॥482॥