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मौसियाँ</div>
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दिल्ली की तस्वीर</div>
  
 
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रचनाकार: [[अनामिका]]
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रचनाकार: [[रमेश रंजक]]
 
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वे बारिश में धूप की तरह आती हैं -–
+
मुँह देखा आचरण यहाँ का
थोड़े समय के लिए और अचानक
+
बोझिल वातावरण यहाँ का
हाथ के बुने स्वेटर, इन्द्रधनुष, तिल के लड्डू
+
झूठे हैं अख़बार यहाँ के
और सधोर की साड़ी लेकर
+
अन्धा है जागरण यहाँ का
वे आती हैं झूला झुलाने
+
घने धुँधलके में डूबी हैं सीमाएँ परिवेश की
पहली मितली की ख़बर पाकर
+
                यह महान नगरी है मेरे देश की
और गर्भ सहलाकर
+
लेती हैं अन्तरिम रपट
+
गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की
+
  
झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
+
है तो राजनीति की पुस्तक
मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
+
लेकिन कूटनीति में जड़ है
कर देती हैं चोटी-पाटी
+
हर अध्याय लिखा है आधा
और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
+
आधे में आधी गड़बड़ है
किस धुन में रहती है
+
        चमकीला आवरण यहाँ का
कि बालों की गाँठें भी तुझसे
+
        उल्टा है व्याकरण यहाँ का
ठीक से निकलती नहीं ।
+
        शब्द-शब्द से फूट रही है गन्ध विषैले द्वेष की
 +
                          यह महान नगरी है मेरे देश की
  
बालों के बहाने
+
धूप बड़ी बेशरम यहाँ की
वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
+
चाँदी की प्यासी हैं रातें
करती हैं परिहास, सुनाती हैं क़िस्से
+
जीती है अधमरी रोशनी
और फिर हँसती-हँसाती
+
सुन-सुन कर अधनंगी बातें
दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं -–
+
        सुबहें हैं चालाक यहाँ की
चटनी-अचार-मूंग-बड़ियाँ और बेस्वाद सम्बन्ध
+
        शामें हैं नापाक यहाँ की
चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे -–
+
        दोपहरी मेज़ों पर फैलाती बातें उपदेश की
सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
+
                    यह महान नगरी है मेरे देश की
ध्यान भी नहीं जाता औरों का ।
+
  
आँखों के नीचे धीरे-धीरे
+
उजली है पोशाक बदन पर
जिसके पसर जाते हैं साए
+
रोज़ी है साँवली यहाँ की
और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप -–
+
सत्य अहिंसा के पँखों पर
ख़ून के आँसू-से
+
उड़ती है धाँधली यहाँ की
चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
+
        नागिन-सी चलती ख़ुदगर्ज़ी
काले-कत्थई चकत्तों का
+
        चादर एक सैकड़ों दर्ज़ी
मौसियों के वैद्यक में
+
        बिकती है टोपियाँ हज़ारों अवसरवादी वेश की
एक ही इलाज है -–
+
                        यह महान नगरी है मेरे देश की
हँसी और कालीपूजा
+
और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी ।
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बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
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छू कर चरण भाग्य बनते हैं
लेती गई खेत से कोड़कर अपने
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प्रतिभा लँगड़ा कर चलती है
जीवन की कुछ ज़रूरी चीज़ें -
+
हमदर्दी कुर्सी के आगे
जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपन्थी,
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        मगरमच्छ आँखें मलती है
अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की
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        आदम, आदमख़ोर यहाँ के
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        रखवाले हैं चोर यहाँ के
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        जिन्हें सताती है चिन्ता कोठी के श्रीगणेश की
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                          यह महान नगरी है मेरे देश की
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जिसने आधी उमर काट दी
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इधर-उधर कैंचियाँ चलाते
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गोल इमारत की धाई छू
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उसके पाप, पुण्य हो जाते
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        गढ़ते हैं कानून निराले
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        ये लम्बे नाख़ूनों वाले
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        देसी होठों से करते हैं बातें सदा विदेश की
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                      यह महान नगरी है मेरे देश की  
 
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13:30, 11 अगस्त 2014 का अवतरण

दिल्ली की तस्वीर

रचनाकार: रमेश रंजक

Kk-poem-border-1.png

मुँह देखा आचरण यहाँ का बोझिल वातावरण यहाँ का झूठे हैं अख़बार यहाँ के अन्धा है जागरण यहाँ का घने धुँधलके में डूबी हैं सीमाएँ परिवेश की

               यह महान नगरी है मेरे देश की

है तो राजनीति की पुस्तक लेकिन कूटनीति में जड़ है हर अध्याय लिखा है आधा आधे में आधी गड़बड़ है

       चमकीला आवरण यहाँ का
       उल्टा है व्याकरण यहाँ का
       शब्द-शब्द से फूट रही है गन्ध विषैले द्वेष की
                         यह महान नगरी है मेरे देश की

धूप बड़ी बेशरम यहाँ की चाँदी की प्यासी हैं रातें जीती है अधमरी रोशनी सुन-सुन कर अधनंगी बातें

       सुबहें हैं चालाक यहाँ की
       शामें हैं नापाक यहाँ की
       दोपहरी मेज़ों पर फैलाती बातें उपदेश की
                   यह महान नगरी है मेरे देश की

उजली है पोशाक बदन पर रोज़ी है साँवली यहाँ की सत्य अहिंसा के पँखों पर उड़ती है धाँधली यहाँ की

       नागिन-सी चलती ख़ुदगर्ज़ी
       चादर एक सैकड़ों दर्ज़ी
       बिकती है टोपियाँ हज़ारों अवसरवादी वेश की
                       यह महान नगरी है मेरे देश की

छू कर चरण भाग्य बनते हैं प्रतिभा लँगड़ा कर चलती है हमदर्दी कुर्सी के आगे

       मगरमच्छ आँखें मलती है
       आदम, आदमख़ोर यहाँ के
       रखवाले हैं चोर यहाँ के
       जिन्हें सताती है चिन्ता कोठी के श्रीगणेश की
                         यह महान नगरी है मेरे देश की

जिसने आधी उमर काट दी इधर-उधर कैंचियाँ चलाते गोल इमारत की धाई छू उसके पाप, पुण्य हो जाते

       गढ़ते हैं कानून निराले
       ये लम्बे नाख़ूनों वाले
       देसी होठों से करते हैं बातें सदा विदेश की
                      यह महान नगरी है मेरे देश की