"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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− | सामने कर्ण सकुचाया सा, आ मिला चकित भरमाया सा | + | |
+ | भगवान सभा को छोड़ चले, | ||
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+ | :करके रण गर्जन घोर चले | ||
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+ | सामने कर्ण सकुचाया सा, | ||
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+ | :आ मिला चकित भरमाया सा | ||
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, | हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, | ||
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− | रथ चला परस्पर बात | + | रथ चला परस्पर बात चली, |
− | शीतल हो हरि ने कहा, | + | :शम-दम की टेढी घात चली, |
+ | |||
+ | शीतल हो हरि ने कहा, "हाय, | ||
+ | |||
+ | :अब शेष नही कोई उपाय | ||
हो विवश हमें धनु धरना है, | हो विवश हमें धनु धरना है, | ||
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− | + | "मैंने कितना कुछ कहा नहीं? | |
− | पर, दुर्योधन मतवाला है, कुछ नहीं समझने वाला है | + | :विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? |
+ | |||
+ | पर, दुर्योधन मतवाला है, | ||
+ | |||
+ | :कुछ नहीं समझने वाला है | ||
चाहिए उसे बस रण केवल, | चाहिए उसे बस रण केवल, | ||
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− | + | "हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, | |
− | वह भी कौरव को भारी है, मति गई मूढ़ की मरी है | + | :क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? |
+ | |||
+ | वह भी कौरव को भारी है, | ||
+ | |||
+ | :मति गई मूढ़ की मरी है | ||
दुर्योधन को बोधूं कैसे? | दुर्योधन को बोधूं कैसे? | ||
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− | + | "सोचो क्या दृश्य विकट होगा, | |
− | बाहर शोणित की तप्त धार, भीतर विधवाओं की पुकार | + | :रण में जब काल प्रकट होगा? |
+ | |||
+ | बाहर शोणित की तप्त धार, | ||
+ | |||
+ | :भीतर विधवाओं की पुकार | ||
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, | निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, | ||
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− | + | "चिंता है, मैं क्या और करूं? | |
+ | |||
+ | :शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? | ||
+ | |||
+ | सब राह बंद मेरे जाने, | ||
− | + | :हाँ एक बात यदि तू माने, | |
तो शान्ति नहीं जल सकती है, | तो शान्ति नहीं जल सकती है, | ||
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− | + | "पा तुझे धन्य है दुर्योधन, | |
− | तेरे बल की है आस उसे, तुझसे जय का विश्वास उसे | + | :तू एकमात्र उसका जीवन |
+ | |||
+ | तेरे बल की है आस उसे, | ||
+ | |||
+ | :तुझसे जय का विश्वास उसे | ||
तू संग न उसका छोडेगा, | तू संग न उसका छोडेगा, | ||
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− | क्या अघटनीय घटना कराल? | + | "क्या अघटनीय घटना कराल? |
− | बन सूत अनादर सहता है, कौरव के दल में रहता है, | + | :तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल, |
+ | |||
+ | बन सूत अनादर सहता है, | ||
+ | |||
+ | :कौरव के दल में रहता है, | ||
शर-चाप उठाये आठ प्रहार, | शर-चाप उठाये आठ प्रहार, | ||
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− | + | "माँ का सनेह पाया न कभी, | |
− | किस्मत के फेरे में पड़ कर, पा प्रेम बसा दुश्मन के घर | + | :सामने सत्य आया न कभी, |
+ | |||
+ | किस्मत के फेरे में पड़ कर, | ||
+ | |||
+ | :पा प्रेम बसा दुश्मन के घर | ||
निज बंधू मानता है पर को, | निज बंधू मानता है पर को, | ||
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− | + | "पर कौन दोष इसमें तेरा? | |
− | चल होकर संग अभी मेरे, है जहाँ पाँच भ्राता तेरे | + | :अब कहा मान इतना मेरा |
+ | |||
+ | चल होकर संग अभी मेरे, | ||
+ | |||
+ | :है जहाँ पाँच भ्राता तेरे | ||
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, | बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, | ||
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− | + | "कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, | |
+ | |||
+ | :बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ | ||
+ | |||
+ | मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, | ||
− | + | :तेरा अभिषेक करेंगे हम | |
आरती समोद उतारेंगे, | आरती समोद उतारेंगे, | ||
पंक्ति 106: | पंक्ति 152: | ||
− | + | "पद-त्राण भीम पहनायेगा, | |
− | पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, सहदेव-नकुल अनुचर होंगे | + | :धर्माचिप चंवर डुलायेगा |
+ | |||
+ | पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, | ||
+ | |||
+ | :सहदेव-नकुल अनुचर होंगे | ||
भोजन उत्तरा बनायेगी, | भोजन उत्तरा बनायेगी, | ||
पंक्ति 115: | पंक्ति 165: | ||
− | आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! | + | "आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! |
− | सब लोग तुझे पहचानेंगे, असली स्वरूप में जानेंगे | + | :आनंद-चमत्कृत जग होगा |
+ | |||
+ | सब लोग तुझे पहचानेंगे, | ||
+ | |||
+ | :असली स्वरूप में जानेंगे | ||
खोयी मणि को जब पायेगी, | खोयी मणि को जब पायेगी, | ||
पंक्ति 124: | पंक्ति 178: | ||
− | रण अनायास रुक जायेगा, | + | "रण अनायास रुक जायेगा, |
− | संसार बड़े सुख में होगा, कोई न कहीं दुःख में होगा | + | :कुरुराज स्वयं झुक जायेगा |
+ | |||
+ | संसार बड़े सुख में होगा, | ||
+ | |||
+ | :कोई न कहीं दुःख में होगा | ||
सब गीत खुशी के गायेंगे, | सब गीत खुशी के गायेंगे, | ||
पंक्ति 133: | पंक्ति 191: | ||
− | कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, | + | "कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, |
− | यश मुकुट मान सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे | + | :साम्राज्य समर्पण करता हूँ |
+ | |||
+ | यश मुकुट मान सिंहासन ले, | ||
+ | |||
+ | :बस एक भीख मुझको दे दे | ||
कौरव को तज रण रोक सखे, | कौरव को तज रण रोक सखे, | ||
पंक्ति 142: | पंक्ति 204: | ||
− | सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, | + | सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, |
+ | |||
+ | :क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, | ||
+ | |||
+ | फिर कहा "बड़ी यह माया है, | ||
− | + | :जो कुछ आपने बताया है | |
दिनमणि से सुनकर वही कथा | दिनमणि से सुनकर वही कथा | ||
पंक्ति 151: | पंक्ति 217: | ||
− | मैं ध्यान जन्म का धरता | + | "मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ, |
− | कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल | + | :उन्मन यह सोचा करता हूँ, |
+ | |||
+ | कैसी होगी वह माँ कराल, | ||
+ | |||
+ | :निज तन से जो शिशु को निकाल | ||
धाराओं में धर आती है, | धाराओं में धर आती है, | ||
पंक्ति 160: | पंक्ति 230: | ||
− | सेवती मास दस तक | + | "सेवती मास दस तक जिसको, |
− | जीवन का अंश खिलाती है, अन्तर का रुधिर पिलाती है | + | :पालती उदर में रख जिसको, |
+ | |||
+ | जीवन का अंश खिलाती है, | ||
+ | |||
+ | :अन्तर का रुधिर पिलाती है | ||
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, | आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, | ||
पंक्ति 169: | पंक्ति 243: | ||
− | हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, | + | "हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, |
− | सुनना न चाहते तनिक श्रवण, जिस माँ ने मेरा किया जनन | + | :इस पर न अधिक कुछ भी कहिये |
+ | |||
+ | सुनना न चाहते तनिक श्रवण, | ||
+ | |||
+ | :जिस माँ ने मेरा किया जनन | ||
वह नहीं नारि कुल्पाली थी, | वह नहीं नारि कुल्पाली थी, | ||
पंक्ति 178: | पंक्ति 256: | ||
− | पत्थर समान उसका हिय था, | + | "पत्थर समान उसका हिय था, |
− | गोदी में आग लगा कर के, मेरा कुल - वंश छिपा कर के | + | :सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था |
+ | |||
+ | गोदी में आग लगा कर के, | ||
+ | |||
+ | :मेरा कुल-वंश छिपा कर के | ||
दुश्मन का उसने काम किया, | दुश्मन का उसने काम किया, | ||
पंक्ति 187: | पंक्ति 269: | ||
− | माँ का पय भी न पीया मैंने, उलटे अभिशाप लिया मैंने | + | "माँ का पय भी न पीया मैंने, |
+ | |||
+ | :उलटे अभिशाप लिया मैंने | ||
+ | |||
+ | वह तो यशस्विनी बनी रही, | ||
− | + | :सबकी भौ मुझ पर तनी रही | |
कन्या वह रही अपरिणीता, | कन्या वह रही अपरिणीता, | ||
पंक्ति 196: | पंक्ति 282: | ||
− | मैं जाती गोत्र से | + | "मैं जाती गोत्र से दीन, हीन, |
− | + | :राजाओं के सम्मुख मलीन, | |
− | पत्थर की छाती | + | जब रोज अनादर पाता था, |
+ | |||
+ | :कह 'शूद्र' पुकारा जाता था | ||
+ | |||
+ | पत्थर की छाती फटी नही, | ||
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं | कुन्ती तब भी तो कटी नहीं | ||
− | मैं सूत-वंश में पलता | + | "मैं सूत-वंश में पलता था, |
− | सब देख रही थी दृश्य पृथा, माँ की ममता पर हुई वृथा | + | :अपमान अनल में जलता था, |
+ | |||
+ | सब देख रही थी दृश्य पृथा, | ||
+ | |||
+ | :माँ की ममता पर हुई वृथा | ||
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी | छिप कर भी तो सुधि ले न सकी | ||
पंक्ति 214: | पंक्ति 308: | ||
− | पा पाँच तनय फूली फूली, | + | "पा पाँच तनय फूली फूली, |
− | + | :दिन-रात बड़े सुख में भूली | |
− | + | कुन्ती गौरव में चूर रही, | |
− | + | :मुझ पतित पुत्र से दूर रही | |
+ | क्या हुआ की अब अकुलाती है? | ||
− | + | किस कारण मुझे बुलाती है? | |
− | या महानाश के छाने पर, अथवा मन के घबराने पर | + | |
+ | "क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, | ||
+ | |||
+ | :सुत के धन धाम गंवाने पर | ||
+ | |||
+ | या महानाश के छाने पर, | ||
+ | |||
+ | :अथवा मन के घबराने पर | ||
नारियाँ सदय हो जाती हैं | नारियाँ सदय हो जाती हैं | ||
पंक्ति 232: | पंक्ति 334: | ||
− | कुन्ती जिस भय से भरी रही, तज मुझे दूर हट खड़ी रही | + | "कुन्ती जिस भय से भरी रही, |
+ | |||
+ | :तज मुझे दूर हट खड़ी रही | ||
+ | |||
+ | वह पाप अभी भी है मुझमें, | ||
+ | |||
+ | :वह शाप अभी भी है मुझमें | ||
+ | |||
+ | क्या हुआ की वह डर जायेगा? | ||
− | + | कुन्ती को काट न खायेगा? | |
− | |||
− | + | "सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, | |
+ | :मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ? | ||
− | + | कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, | |
− | + | :मेरा सुख या पांडव की जय? | |
यह अभिनन्दन नूतन क्या है? | यह अभिनन्दन नूतन क्या है? | ||
पंक्ति 250: | पंक्ति 360: | ||
− | मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, | + | "मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, |
− | पर ऐसा भी था एक समय, जब यह समाज निष्ठुर निर्दय | + | :सब लोग हुए हित के कामी |
+ | |||
+ | पर ऐसा भी था एक समय, | ||
+ | |||
+ | :जब यह समाज निष्ठुर निर्दय | ||
किंचित न स्नेह दर्शाता था, | किंचित न स्नेह दर्शाता था, | ||
पंक्ति 259: | पंक्ति 373: | ||
− | उस समय सुअंक लगा कर के, | + | "उस समय सुअंक लगा कर के, |
− | चुम्बन से कौन मुझे भर कर, ताड़ना-ताप लेती थी हर | + | :अंचल के तले छिपा कर के |
+ | |||
+ | चुम्बन से कौन मुझे भर कर, | ||
+ | |||
+ | :ताड़ना-ताप लेती थी हर? | ||
राधा को छोड़ भजूं किसको, | राधा को छोड़ भजूं किसको, | ||
− | जननी है वही, तजूं किसको | + | जननी है वही, तजूं किसको? |
− | हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, | + | "हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, |
− | धूलों में मैं था पडा हुआ, किसका सनेह पा बड़ा हुआ? | + | :सच है की झूठ मन में गुनिये |
+ | |||
+ | धूलों में मैं था पडा हुआ, | ||
+ | |||
+ | :किसका सनेह पा बड़ा हुआ? | ||
किसने मुझको सम्मान दिया, | किसने मुझको सम्मान दिया, | ||
पंक्ति 277: | पंक्ति 399: | ||
− | अपना विकास अवरुद्ध देख, | + | "अपना विकास अवरुद्ध देख, |
− | + | :सारे समाज को क्रुद्ध देख | |
+ | |||
+ | भीतर जब टूट चुका था मन, | ||
+ | |||
+ | :आ गया अचानक दुर्योधन | ||
निश्छल पवित्र अनुराग लिए, | निश्छल पवित्र अनुराग लिए, | ||
पंक्ति 286: | पंक्ति 412: | ||
− | कुन्ती ने केवल जन्म दिया, | + | "कुन्ती ने केवल जन्म दिया, |
− | पर कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन | + | :राधा ने माँ का कर्म किया |
+ | |||
+ | पर कहते जिसे असल जीवन, | ||
+ | |||
+ | :देने आया वह दुर्योधन | ||
वह नहीं भिन्न माता से है | वह नहीं भिन्न माता से है | ||
पंक्ति 295: | पंक्ति 425: | ||
− | राजा रंक से बना कर के, यश, मान, मुकुट पहना कर के | + | "राजा रंक से बना कर के, |
+ | |||
+ | :यश, मान, मुकुट पहना कर के | ||
+ | |||
+ | बांहों में मुझे उठा कर के, | ||
− | + | :सामने जगत के ला करके | |
करतब क्या क्या न किया उसने | करतब क्या क्या न किया उसने | ||
पंक्ति 304: | पंक्ति 438: | ||
− | है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, | + | "है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, |
− | तन मन धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है | + | :जानते सत्य यह सूर्य-सोम |
+ | |||
+ | तन मन धन दुर्योधन का है, | ||
+ | |||
+ | :यह जीवन दुर्योधन का है | ||
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा, | सुर पुर से भी मुख मोडूँगा, | ||
पंक्ति 313: | पंक्ति 451: | ||
− | सच है मेरी है आस उसे, | + | "सच है मेरी है आस उसे, |
− | हाँ सच है मेरे ही बल पर, ठाना है उसने महासमर | + | :मुझ पर अटूट विश्वास उसे |
+ | |||
+ | हाँ सच है मेरे ही बल पर, | ||
+ | |||
+ | :ठाना है उसने महासमर | ||
पर मैं कैसा पापी हूँगा? | पर मैं कैसा पापी हूँगा? | ||
पंक्ति 322: | पंक्ति 464: | ||
− | रह साथ सदा खेला खाया, | + | "रह साथ सदा खेला खाया, |
− | अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है | + | :सौभाग्य-सुयश उससे पाया |
+ | |||
+ | अब जब विपत्ति आने को है, | ||
+ | |||
+ | :घनघोर प्रलय छाने को है | ||
तज उसे भाग यदि जाऊंगा | तज उसे भाग यदि जाऊंगा | ||
पंक्ति 331: | पंक्ति 477: | ||
− | + | "कुन्ती का मैं भी एक तनय, | |
− | संसार मुझे धिक्कारेगा, मन में वह यही विचारेगा | + | :जिसको होगा इसका प्रत्यय |
+ | |||
+ | संसार मुझे धिक्कारेगा, | ||
+ | |||
+ | :मन में वह यही विचारेगा | ||
फिर गया तुरत जब राज्य मिला, | फिर गया तुरत जब राज्य मिला, | ||
पंक्ति 340: | पंक्ति 490: | ||
− | मैं ही न सहूंगा विषम डंक, अर्जुन पर भी होगा कलंक | + | "मैं ही न सहूंगा विषम डंक, |
+ | |||
+ | :अर्जुन पर भी होगा कलंक | ||
+ | |||
+ | सब लोग कहेंगे डर कर ही, | ||
− | + | :अर्जुन ने अद्भुत नीति गही | |
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया | चल चाल कर्ण को फोड़ लिया | ||
पंक्ति 349: | पंक्ति 503: | ||
− | कोई भी कहीं न चूकेगा, | + | "कोई भी कहीं न चूकेगा, |
− | तप त्याग शील, जप योग दान, मेरे होंगे मिट्टी समान | + | :सारा जग मुझ पर थूकेगा |
+ | |||
+ | तप त्याग शील, जप योग दान, | ||
+ | |||
+ | :मेरे होंगे मिट्टी समान | ||
लोभी लालची कहाऊँगा | लोभी लालची कहाऊँगा | ||
पंक्ति 358: | पंक्ति 516: | ||
− | जो आज आप कह रहे आर्य, | + | "जो आज आप कह रहे आर्य, |
− | सुन वही हुए लज्जित होते, हम क्यों रण को सज्जित होते | + | :कुन्ती के मुख से कृपाचार्य |
+ | |||
+ | सुन वही हुए लज्जित होते, | ||
+ | |||
+ | :हम क्यों रण को सज्जित होते | ||
मिलता न कर्ण दुर्योधन को, | मिलता न कर्ण दुर्योधन को, | ||
पंक्ति 367: | पंक्ति 529: | ||
− | लेकिन नौका तट छोड़ चली, | + | "लेकिन नौका तट छोड़ चली, |
− | यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है | + | :कुछ पता नहीं किस ओर चली |
+ | |||
+ | यह बीच नदी की धारा है, | ||
+ | |||
+ | :सूझता न कूल-किनारा है | ||
ले लील भले यह धार मुझे, | ले लील भले यह धार मुझे, | ||
पंक्ति 376: | पंक्ति 542: | ||
− | धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, | + | "धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, |
− | कुल की पोशाक पहन कर के, सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के? | + | :भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? |
+ | |||
+ | कुल की पोशाक पहन कर के, | ||
+ | |||
+ | :सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के? | ||
इस झूठ-मूठ में रस क्या है? | इस झूठ-मूठ में रस क्या है? | ||
पंक्ति 386: | पंक्ति 556: | ||
− | सिर पर कुलीनता का टीका, | + | "सिर पर कुलीनता का टीका, |
− | अपना न नाम जो ले सकते, परिचय न तेज से दे सकते | + | :भीतर जीवन का रस फीका |
+ | |||
+ | अपना न नाम जो ले सकते, | ||
+ | |||
+ | :परिचय न तेज से दे सकते | ||
ऐसे भी कुछ नर होते हैं | ऐसे भी कुछ नर होते हैं | ||
पंक्ति 394: | पंक्ति 568: | ||
कुल को खाते औ' खोते हैं | कुल को खाते औ' खोते हैं | ||
− | [[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6 | | + | |
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11:49, 22 अगस्त 2008 का अवतरण
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भगवान सभा को छोड़ चले,
- करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
- आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,
- शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,
- अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
- कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
- मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
- रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
- भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
- हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
- तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
- तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
- कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर
"माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
- अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
- तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
- आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
- असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा,
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
- कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
- बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
- जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
- निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
- पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
- अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
- जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
- उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
- राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
- अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
- माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,
- दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
- सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
- अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
- वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
- मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
- सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
- अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
- सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
- सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
- आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
- राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
- देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
- यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
- सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
- यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
- ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
- घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
- जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
- मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
- अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
- सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
- मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
- हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
- कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
- सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
- भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
- परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं