"तुम हो ना / अंजू शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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यादों के झरोखे से | यादों के झरोखे से | ||
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सिमट आया है चाँद मेरे आँचल में, | सिमट आया है चाँद मेरे आँचल में, | ||
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दुलराता सहेजता अपनी चांदनी को, | दुलराता सहेजता अपनी चांदनी को, | ||
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एक श्वेत कण बिखेरता | एक श्वेत कण बिखेरता | ||
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अनगिनित रश्मियाँ | अनगिनित रश्मियाँ | ||
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दूधिया उजाला दूर कर रहा है | दूधिया उजाला दूर कर रहा है | ||
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हृदय के समस्त कोनो का अँधेरा, | हृदय के समस्त कोनो का अँधेरा, | ||
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देख पा रही हूँ मैं खुदको, | देख पा रही हूँ मैं खुदको, | ||
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एक नयी रौशनी से नहाई | एक नयी रौशनी से नहाई | ||
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मेरी आत्मा सिंगर रही है, | मेरी आत्मा सिंगर रही है, | ||
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महकती बयार में, | महकती बयार में, | ||
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बंद आँखों से गिन रही हूँ तारे, | बंद आँखों से गिन रही हूँ तारे, | ||
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एक एक कर एकाकार हो रहे हैं मुझमें | एक एक कर एकाकार हो रहे हैं मुझमें | ||
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लम्हे जो संग बांटे थे तुम्हारे, | लम्हे जो संग बांटे थे तुम्हारे, | ||
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सूनी सड़क पे, | सूनी सड़क पे, | ||
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टहलते कदम, | टहलते कदम, | ||
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रुक गए, ठहरे, फिर चले, | रुक गए, ठहरे, फिर चले, | ||
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चल पड़े मंजिल की और, | चल पड़े मंजिल की और, | ||
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और पा लिया मैंने तुम्हे, | और पा लिया मैंने तुम्हे, | ||
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सदा के लिए, | सदा के लिए, | ||
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महसूस कर रही हूँ मैं, | महसूस कर रही हूँ मैं, | ||
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तुम्हारी दृष्टि की तपिश, | तुम्हारी दृष्टि की तपिश, | ||
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और हिम सी पिघलती मेरी देह, | और हिम सी पिघलती मेरी देह, | ||
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जो अब नहीं है, | जो अब नहीं है, | ||
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कहीं नहीं है, | कहीं नहीं है, | ||
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समा गयी है नदी | समा गयी है नदी | ||
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अपने सागर के आगोश में, | अपने सागर के आगोश में, | ||
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क्योंकि मेरा अस्तित्व भी तुम हो, | क्योंकि मेरा अस्तित्व भी तुम हो, | ||
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पहचान भी तुम हो, | पहचान भी तुम हो, | ||
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मैं जानती हूँ तुम | मैं जानती हूँ तुम | ||
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कहीं नहीं हो, | कहीं नहीं हो, | ||
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जाने क्यों हमेशा लगता है | जाने क्यों हमेशा लगता है | ||
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तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो, हो ना | तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो, हो ना | ||
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16:15, 26 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण
यादों के झरोखे से
सिमट आया है चाँद मेरे आँचल में,
दुलराता सहेजता अपनी चांदनी को,
एक श्वेत कण बिखेरता
अनगिनित रश्मियाँ
दूधिया उजाला दूर कर रहा है
हृदय के समस्त कोनो का अँधेरा,
देख पा रही हूँ मैं खुदको,
एक नयी रौशनी से नहाई
मेरी आत्मा सिंगर रही है,
महकती बयार में,
बंद आँखों से गिन रही हूँ तारे,
एक एक कर एकाकार हो रहे हैं मुझमें
लम्हे जो संग बांटे थे तुम्हारे,
सूनी सड़क पे,
टहलते कदम,
रुक गए, ठहरे, फिर चले,
चल पड़े मंजिल की और,
और पा लिया मैंने तुम्हे,
सदा के लिए,
महसूस कर रही हूँ मैं,
तुम्हारी दृष्टि की तपिश,
और हिम सी पिघलती मेरी देह,
जो अब नहीं है,
कहीं नहीं है,
समा गयी है नदी
अपने सागर के आगोश में,
क्योंकि मेरा अस्तित्व भी तुम हो,
पहचान भी तुम हो,
मैं जानती हूँ तुम
कहीं नहीं हो,
जाने क्यों हमेशा लगता है
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो, हो ना