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|रचनाकार=कैफ़ी आज़मी
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तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा
इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे
शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो<br>रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरीऔर कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा<br>कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहींइसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे<br>कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैंशब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा<br><br>मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं
रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरी<br>कोई लाया है या ख़ुद यूं तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया हूं मालूम नहीं<br>कहते हैं कि नज़रें कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी हसीं होती हैं<br>नहींमैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम तुम्हारे लिए आंखों में छुपा रक्खा हैदेख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं<br><br>
यूं तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया<br>कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत फिर भी नहीं<br>कुछ तुम्हारे लिए आंखों इक राह में छुपा रक्खा है<br>सौ तरह के मोड़ आते हैंकाश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न होकाश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम कोदेख लो और इस तरह कि जिस तरह कोई पास देखो तो शिकायत भी नहीं<br><br>हो
फिर भी इक राह में सौ तरह के मोड़ आते हैं<br>काश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न हो<br>काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को<br>और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो<br><br> आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है<br>मैं किसी तरह गुज़ारूंगा चला जाऊंगा<br>तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो<br>और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा<br><br/poem>
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