"पता नहीं... / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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यह राह ज़िन्दगी की | यह राह ज़िन्दगी की | ||
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है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के | है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के | ||
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तुमको निहारती बैठेगी | तुमको निहारती बैठेगी | ||
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मानव के प्रति, मानव के | मानव के प्रति, मानव के | ||
− | + | ::जी की पुकार | |
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लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी | लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी | ||
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तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर | तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर | ||
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तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के | तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के | ||
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वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी | वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी | ||
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पर, तुम अनन्य होगे, | पर, तुम अनन्य होगे, | ||
− | + | ::प्रसन्न होगे !! | |
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी | आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी |
17:34, 8 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले
किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह ज़िन्दगी की
- जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊँचा, ज़मीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गम्भीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
यह सही है कि चिलचिला रहे फासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्रता का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वही
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्तःकरण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
- आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
- जी की पुकार
- जितनी अनन्य!
लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी
वह भव्य तृषा
इतने समीप
ज्यों लालीभरा पास बैठा हो आसमान
आँचल फैला,
अपनेपन की प्रकाश-वर्षा
में रुधिर-स्नात हँसता समुद्र
अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।
मुख है कि मात्र आँखें है वे आलोकभरी,
जो सतत तुम्हारी थाह लिए होतीं गहरी,
इतनी गहरी
कि तुम्हारी थाहों में अजीब हलचल,
मानो अनजाने रत्नों की अनपहचानी-सी चोरी में
धर लिए गये,
निज में बसने, कस लिए गए।
तब तुम्हें लगेगा अकस्मात्,
...........
ले प्रतिभाओं का सार, स्फुलिंगों का समूह
सबके मन का
जो बना है एक अग्नि-व्यूह
अन्तस्तल में,
उस पर जो छायी हैं ठण्डी
प्रस्तर-सतहें
सहसा काँपी, तड़कीं, टूटीं
औ' भीतर का वह ज्वलत् कोष
ही निकल पड़ा !!
उत्कलित हुआ प्रज्वलित कमल !!
यह कैसी घटना है...
कि स्वप्न की रचना है।
उस कमल-कोष के पराग-स्तर
पर खड़ा हुआ
सहसा होता प्रकट एक
वह शक्ति-पुरुष
जो दोनों हाथों आसमान थामता हुआ
आता समीप अत्यन्त निकट
आतुर उत्कट
तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर
- न जाने कहाँ व कितनी दूर !!
फिर वही यात्रा सुदूर की,
फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की,
कि वही आत्मचेतस् अन्तःसम्भावना,
...जाने किन खतरों में जूझे ज़िन्दगी !!
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या निःस्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
- चरण-तले जनपथ बनकर !!
वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
- प्रसन्न होगे !!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी
जिस जगह, जहाँ जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले।