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मानो मूरत मोम कीरहिमन आँटा के लगे, धरै रंग सुर तंग। बाजत है दिन राति।नैन रंगीले होते घिउ शक्कर जे खात हैं, देखत बाको रंग॥301॥तिनकी कहा बिसाति॥181॥
भाटा बरन सु कौजरीरहिमन उजली प्रकृत को, बेचै सोवा साग। नहीं नीच को संग।निलजु भई खेलत सदाकरिया बासन कर गहे, गारी दै दै फाग॥302॥कालिख लागत अंग॥182॥
बर बांके माटी भरेरहिमन एक दिन वे रहे, कौरी बैस कुम्हारी। बीच न सोहत हार।द्वै उलटे सखा मनौवायु जो ऐसी बह गई, दीसत कुच उनहारि॥303॥वीचन परे पहार॥183॥
कुच भाटा गाजर अधररहिमन ओछे नरन सों, मुरा से भुज पाई। बैर भलो ना प्रीति।बैठी लौकी बेचईकाटे चाटै स्वान के, लेटी खीरा खाई॥304॥दोऊ भाँति विपरीति॥184॥
राखत मो मन लोह-समरहिमन कठिन चितान ते, पारि प्रेम घन टोरि। चिंता को चित चेत।बिरह अगिन में ताइकैचिता दहति निर्जीव को, नैन नीर में बोरि॥305॥चिंता जीव समेत॥185॥
परम ऊजरी गूजरीरहिमन कबहुँ बड़ेन के, दह्यो सीस पै लेई। नाहिं गर्व को लेस।गोरस के मिसि डोलहीभार धरैं संसार को, सो रस नेक न देई॥306॥तऊ कहावत सेस॥186॥
रस रेसम बेचत रहैरहिमन करि सम बल नहीं, नैन सैन मानत प्रभु की सात। धाक।फूंदी पर को फौंदनादाँत दिखावत दीन ह्वै, करै कोटि जिम घात॥307॥चलत घिसावत नाक॥187॥
छीपिन छापो अधर कोरहिमन कहत सुपेट सों, सुरंग पीक मटि लेई। क्यों न भयो तू पीठ।हंसि-हंसि काम कलोल केरहते अनरीते करै, पिय मुख ऊपर देई॥308॥नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ। बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ॥309॥भरे बिगारत दीठ॥188॥
सुरंग बदन तन गंधिनीरहिमन कुटिल कुठार ज्यों, देखत दृग न अघाय। करत डारत द्वै टूक।कुच माजूचतुरन के कसकत रहे, कुटली अधर, मोचत चरन न आय॥310॥समय चूक की हूक॥189॥
मुख पै बैरागी अलकरहिमन को कोउ का करै, कुच सिंगी विष बैन। ज्वारी, चोर, लबार।मुदरा धारै अधर कैजो पति-राखनहार हैं, मूंदि ध्यान सों नैन॥311॥माखन-चाखनहार॥190॥
सकल अंग सिकलीगरनिरहिमन खोजे ऊख में, करत प्रेम औसेर। जहाँ रसन की खानि।करैं बदन दर्पन मनोजहाँ गॉंठ तहँ रस नहीं, नैन मुसकला फेरि॥312॥यही प्रीति में हानि॥191॥
घरो भरो धरि सीस पररहिमन खोटी आदि की, बिरही देखि लजाई। सो परिनाम लखाय।कूक कंठ तै बांधि कैजैसे दीपक तम भखै, लेजूं लै ज्यों जाई॥313॥कज्जल वमन कराय॥192॥
बनजारी झुमकत चलतरहिमन गली है साँकरी, जेहरि पहिरै पाइ। दूजो ना ठहराहिं।वाके जेहरि के सबदआपु अहै तो हरि नहीं, बिरही हर जिय जाइ॥314॥हरि तो आपुन नाहिं॥192॥
रहसनि बहसनि मन रहैरहिमन घरिया रहँट की, घोर घोर तन लेहि। त्यों ओछे की डीठ।औरत को चित चोरि कैरीतिहि सनमुख होत है, आपुनि चित्त न देहि॥315॥भरी दिखावै पीठ॥194॥
निरखि प्रान घट ज्यौं रहैरहिमन चाक कुम्हार को, क्यों मुख आवे वाक। माँगे दिया न देइ।उर मानौं आबाद हैछेद में डंडा डारि कै, चित्त भ्रमैं जिमि चाक॥316॥चहै नॉंद लै लेइ॥195॥
हंसि-हंसि मारै नैन सररहिमन छोटे नरन सो, बारत जिय बहुपीर। होत बड़ो नहीं काम।बोझा ह्वै उर जात हैमढ़ो दमामो ना बने, तीर गहन को तीर॥317॥सौ चूहे के चाम॥196॥
गति गरुर गमन्द जिमिरहिमन जगत बड़ाई की, गोरे बरन गंवार। कूकुर की पहिचानि।जाके परसत पाइयैप्रीति करै मुख चाटई, धनवा की उनहार॥318॥बैर करे तन हानि॥197॥
बिरह अगिनि निसिदिन धवैरहिमन जग जीवन बड़े, उठै चित्त चिनगारि। काहु न देखे नैन।बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि॥319॥चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ। रस जाय दशानन अछत ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ॥320॥कपि लागे गथ लेन॥198॥
सुरंग बरन बरइन बनीरहिमन जाके बाप को, नैन खवाए पान। पानी पिअत न कोय।निस दिन फेरै पान ज्योंताकी गैल आकाश लौं, बिरही जन के प्रान॥321॥क्यो न कालिमा होय॥199॥
मारत नैन कुरंग तेरहिमन जा डर निसि परै, मौ मन भार मरोर। ता दिन डर सिय कोय।आपन अधर सुरंग तेपल पल करके लागते, कामी काढ़त बोर॥322॥देखु कहाँ धौं होय॥200॥
रंगरेजनी के संग मेंरहिमन जिह्वा बावरी, उठत अनंग तरंग। कहि गइ सरग पताल।आनन ऊपर पाइयतुआपु तो कहि भीतर रही, सुरत अन्त के रंग॥323॥जूती खात कपाल॥201॥
नैन प्याला फेरि कैरहिमन जो तुम कहत थे, अधर गजक जब देत। संगति ही गुन होय।मतवारे की मति हरैबीच उखारी रमसरा, जो चाहै सो लेती॥324॥रस काहे ना होय॥202॥
जोगति है पिय रस परसरहिमन जो रहिबो चहै, रहै रोस जिय टेक। कहै वाहि के दाँव।सूधी करत कमान ज्योंजो बासर को निस कहै, बिरह अगिन में सेक॥325॥तौ कचपची दिखाव॥203॥
बेलन तिली सुवाय केरहिमन ठहरी धूरि की, तेलिन करै फुलैल। रही पवन ते पूरि।बिरही दृष्टि कियौ फिरैगाँठ युक्ति की खुलि गई, ज्यों तेली अंत धूरि को बैल॥326॥धूरि॥204॥
भटियारी अरु लच्छमीरहिमन तब लगि ठहरिए, दोऊ एकै घात। दान मान सनमान।आवत बहु आदर करेघटत मान देखिय जबहिं, जान न पूछै बात॥327॥तुरतहि करिय पयान॥205॥
अधर सुधर चख चीखनेरहिमन तीन प्रकार ते, वै मरहैं तन गात। हित अनहित पहिचानि।वाको परसो खात हीपर बस परे, बिरही नहिन अघात॥328॥परोस बस, परे मामिला जानि॥ 206॥
हरी भरी डलिया निरखिरहिमन तीर की चोट ते, जो कोई नियरात। चोट परे बचि जाय।झूठे हू गारी सुनतनैन बान की चोट ते, सोचेहू ललचात॥329॥चोट परे मरि जाय॥207॥
गरब तराजू करत चरवरहिमन थोरे दिनन को, भौह भोरि मुसकयात। कौन करे मुँह स्याह।डांडी मारत विरह कीनहीं छलन को परतिया, चित चिन्ता घटि जात॥330॥परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि। मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि॥331॥नहीं करन को ब्याह॥208॥
और बनज व्यौपार कोरहिमन दानि दरिद्र तर, भाव बिचारै कौन। तऊ जाँचबे योग।लोइन लोने होत हैज्यों सरितन सूखा परे, देखत वाको लौन॥332॥कुआँ खनावत लोग॥209॥
बनियांइन बनि आइकैरहिमन दुरदिन के परे, बैठि रूप की हाट। बड़ेन किए घटि काज।पेम पेक तन हेरि कैपाँच रूप पांडव भए, गरुवे टारत वाट॥333॥रथवाहक नल राज॥210॥
कबहू मुख रूखौ किएरहिमन देखि बड़ेन को, कहै जीभ की बात। लघु न दीजिए डारि।वाको करूओ वचन सुनिजहाँ काम आवे सुई, मुख मीठो ह्वौ जात॥334॥कहा करे तलवारि॥211॥
रीझी रहै डफालिनीरहिमन धागा प्रेम का, अपने पिय के राग। मत तोड़ो छिटकाय।न जानै संजोग रसटूटे से फिर ना मिले, न जानै बैराग॥335॥मिले गाँठ परि जाय॥212॥
चीता वानी देखि कैरहिमन धोखे भाव से, बिरही रहै लुभाय। मुख से निकसे राम।गाड़ी को चिंता मनोपावत पूरन परम गति, चलै न अपने पाय॥336॥कामादिक को धाम॥213॥
रहिमन निज मन दल मलै दलालनीकी बिथा, रूप अंग के भाई। मन ही राखो गोय।नैन मटकि मुख की चटकिसुनि अठिलैहैं लोग सब, गांहक रूप दिखाई॥337॥बाँटि न लैहैं कोय॥214॥
घेरत नगर नगारचिनरहिमन निज संपति बिना, बदन रूप तन साजि। कोउ न बिपति सहाय।घर घर वाके रूप बिनु पानी ज्यों जलज को, रह्यो नगारा बाजि॥338॥नहिं रवि सकै बचाय।1215॥
जो वाके अंग रहिमन नीचन संग मेंबसि, धरै प्रीत की आस। लगत कलंक न काहि।वाके लागे महि महिदूध कलारी कर गहे, बसन बसेधी बास॥339॥मद समुझै सब ताहि॥216॥
सोभा अंग भंगेरिनीरहिमन नीच प्रसंग ते, सोभित माल गुलाल। नित प्रति लाभ विकार।पना पीसि पानी करेनीर चोरावै संपुटी, चखन दिखावै लाल॥340॥मारु सहै घरिआर॥217॥
जाहि-जाहि रहिमन पर उपकार के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन। निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन॥341॥बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू करत न ताहि। यारी बीच।वाके जोबन रूप कीमांस दियो शिवि भूप ने, अकथ कछु आहि॥342॥दीन्हों हाड़ दधीच॥218॥
पान पूतरी पातुरीरहिमन पानी राखिये, पातुर कला निधान। बिनु पानी सब सून।सुरत अंग चित चोरईपानी गए न ऊबरै, काय पांच रस बान॥343॥मोती, मानुष, चून॥219॥
कुन्दन-सी कुन्दीगरिनरहिमन प्रीति न कीजिए, कामिनी कठिन कठोर। जस खीरा ने कीन।और न काहू की सुनैऊपर से तो दिल मिला, अपने पिय के सोर॥344॥भीतर फाँकें तीन॥220॥
कोरिन कूर न जानईरहिमन पेटे सों कहत, पेम नेम के भाइ। क्यों न भये तुम पीठि।बिरही वाकै भौन मेंभूखे मान बिगारहु, ताना तनत भजाइ॥345॥भरे बिगारहु दीठि॥221॥
बिरह विथा मन की हरैरहिमन पैंड़ा प्रेम को, महा विमल ह्वै जाई। निपट सिलसिली गैल।मन मलीन जो धोवईबिछलत पाँव पिपीलिका, वाकौ साबुन लाई॥346॥लोग लदावत बैल॥222॥
निस दिन रहै ठठेरनीरहिमन प्रीति सराहिए, झाजे माजे गात। मिले होत रँग दून।मुकता वाके रूप कोज्यों जरदी हरदी तजै, थारी पै ठहरात॥347॥तजै सफेदी चून॥223॥
सबै अंग सबनीगरनिरहिमन ब्याह बिआधि है, दीसत मन न कलंक। सकहु तो जाहु बचाय।सेत बसन कीने मनोपायन बेड़ी पड़त है, साबुन लाई मतंक॥348॥ढोल बजाय बजाय॥224॥
नैननि भीतर नृत्य कैरहिमन बहु भेषज करत, सैन देत सतराय। ब्याधि न छाँड़त साथ।छबि ते चित्त छुड़ावहीखग मृग बसत अरोग बन, नट हरि अनाथ के भई दिखाय॥349॥नाथ॥225॥
बांस चढ़ी नट बंदनीरहिमन बात अगम्य की, मन बांधत लै बांस। कहन सुनन को नाहिं।नैन बैन की सैन जे जानत तेकहत नाहिं, कटत कटाछन सांस॥350॥कहत ते जानत नाहिं॥226॥
लटकि लेई कर दाइरौरहिमन बिगरी आदि की, गावत अपनी ढाल। बनै न खरचे दाम।सेत लाल छवि दीसियतुहरि बाढ़े आकाश लौं, ज्यों गुलाल की माल॥351॥तऊ बावनै नाम॥227॥
कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग। भाना भामै भोर ही, रहै घटा रहिमन भेषज के संग॥352॥काम पराक्रम जब करैकिए, धुवत नरम हो जाइ। काल जीति जो जात।रोम रोम पिय के बदनबड़े बड़े समरथ भए, रुई सी लपटाइ॥353॥तौ न कोउ मरि जात॥228॥
बहु पतंग जारत रहैरहिमन मनहिं लगाइ के, दीपक बारैं देह। देखि लेहु किन कोय।फिर तन गेह न आवहीनर को बस करिबो कहा, मन जु चेटुवा लेह॥354॥नारायण बस होय॥229॥
नेकु न सूधे मुख रहैरहिमन मारग प्रेम को, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ। मत मतिहीन मझाव।उपपति की सुनि जात हैजो डिगिहै तो फिर कहूँ, सरबस लेइ रिझाइ॥355॥नहिं धरने को पाँव॥230॥
बोलन पै पिय मन बिमलरहिमन माँगत बड़ेन की, चितवति चित्त समाय। लघुता होत अनूप।निस बासर हिन्दू तुरकिबलि मख माँगत को गए, कौतुक देखि लुभाय॥356॥धरि बावन को रूप॥231॥
प्रेम अहेरी साजि कैरहिमन यहि न सराहिये, बांध परयौ रस तान। लैन दैन कै प्रीति।मन मृग ज्यों रीझै नहींप्रानहिं बाजी राखिये, तोहि नैन के बान॥357॥हारि होय कै जीति॥232॥
अलबेली अदभुत कलारहिमन यहि संसार में, सुध बुध ले बरजोर। सब सौं मिलिये धाइ।चोरी चोरी मन लेत हैना जानैं केहि रूप में, ठौर-ठौर तन तोर॥358॥नारायण मिलि जाइ॥233॥
कहै आन की आन कछुरहिमन याचकता गहे, विरह पीर तन ताप। बड़े छोट ह्वै जात।औरे गाइ सुनावईनारायन हू को भयो, और कछू अलाप॥359॥बावन आँगुर गात॥234॥
लेत चुराये डोमनीरहिमन या तन सूप है, मोहन रूप सुजान। लीजै जगत पछोर।गाइ गाइ कुछ लेत हैहलुकन को उड़ि जान दै, बांकी तिरछी तान॥360॥गरुए राखि बटोर॥235॥
मुक्त माल उर दोहरारहिमन यों सुख होत है, चौपाई मुख लौन। बढ़त देखि निज गोत।आपुन जोबन रूप कीज्यों बड़री अँखियाँ निरखि, अस्तुति करे न कौन॥361॥आँखिन को सुख होत॥236॥
मिलत अंग सब मांगनारहिमन रजनी ही भली, प्रथम माँन मन लेई। पिय सों होय मिलाप।घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई॥362॥खरो दिवस किहि काम को रहिबो आपुहि आप॥237॥
विरह विथा खटकिन कहैरहिमन रहिबो वा भलो, पलक न लावै रैन। जो लौं सील समूच।करत कोप बहुत भांत हीसील ढील जब देखिए, धाइ मैन की सैन॥363॥अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त। लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त॥364॥तुरत कीजिए कूच॥238॥
धासिनी थोड़े दिनन रहिमन रहिला कीभली, बैठी जोबन त्यागि। जो परसै चित लाय।थोरे ही बुझ जात हैपरसत मन मैलो करे, घास जराई आग॥365॥सो मैदा जरि जाय॥239॥
चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ। संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ॥366॥ रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह। सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह॥367॥ बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक। बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक॥368॥ नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल। जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल॥369॥ बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन। जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन॥370॥ धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति। वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति॥371॥ मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास। सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास॥372॥ थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव। रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव॥373॥ पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात। रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात॥374॥जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस। रहिमन उतरे पारराज सराहिए, भार झोंकि सब भार में॥375॥ ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों। तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै॥376॥ रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै। पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै॥377॥ रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं। तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं॥378॥ बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं। हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें॥379॥ अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ। सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ॥रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं। जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै॥380॥ रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु। बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो॥381॥ रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै। कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै॥382॥ रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में। ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं॥383॥ चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो। रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में॥384॥ घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान। डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान॥385॥ बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस। निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस॥386॥ सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार। ससिसम सूखद जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार॥387॥होय। भजहु चराचर-नायक सूरज देव। दीन जनन-सुखदायक, तारत एव॥388॥ ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस। नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस॥389॥ ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर। खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर॥390॥ पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात। जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात॥391॥ करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर। लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर॥392॥ बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार। सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर॥393॥ अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम। राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम॥394॥ कबलौं रहि कहा बापुरो भानु है सजनी, मन में धीर। सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर॥395॥ घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज। पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज॥396॥ पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात। अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान॥397॥ मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय। तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय॥398॥ बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव। मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव॥399॥ मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय। गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय॥400॥तपै तरैयन खोय॥240॥
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