भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक बून्द / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
 
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ।
+
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।
  
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में ।
+
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
 
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
 
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
 
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
 
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
 
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
 
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी ।
+
वो उसी में जा गिरी मोती बनी।
  
 
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
 
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
 
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
 
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
 
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
 
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।
+
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।
 
</poem>
 
</poem>

12:12, 30 जून 2015 का अवतरण

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।

मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी।

लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।