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"ज़िन्दगी अपमान की / रामलखन पाल" के अवतरणों में अंतर
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भरी सभा में,
एक सवर्ण ने दूसरे सवर्ण से
क्रोध में आकर
गाली देते हुए कहा—
'चमार कहीं का'
दूसरे सवर्ण ने पहले सवर्ण से
क्रोध में आकर
मारने को झपटते हुए बोला —
"तूने मुझे 'चमार' कहा,
मैं तेरी ज़बान खींच लूँगा।"
पास में ही बैठे / एक अछूत ने
समझाते हुए कहा—
"भाई आप तो एक क्षण के लिए ही
'चमार' बनने पर
जान लेने पर तुले हो।
और मैं...?
सारी ज़िन्दगी ही
अपमान को जीता हूँ
फिर भी किसी की
जान नहीं लेता हूँ।
बस ऐसे ही घुट-घुट कर
जीते हुए भी मरता हूँ।