"दुष्यन्त की प्रेम याचना / संतलाल करुण" के अवतरणों में अंतर
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− | + | अहो, मनोरथ-प्रिया! | |
− | + | नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्त | |
− | + | काम जो मुझे जलाता है | |
− | + | वही है किए तुम्हें संतप्त। | |
− | + | ||
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− | + | आश्रम में है शान्ति | |
− | + | किन्तु मेरा मन है आक्रान्त | |
− | + | यहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रात | |
− | + | लता-बेलों की सगी बहना | |
− | + | तभी हो नव मल्लिका समान | |
− | + | मधुर यह रूप, मदिर ये नयन | |
− | + | दे गया मुझे नेत्र-निर्वाण। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | यही समय है, यही घड़ी है | |
− | + | गाढ़ रूप आलिंगन का प्रिय! | |
− | + | कमल-सुवासित सुखद वायु | |
− | + | मालिनी का तट, यह लताकुंज | |
− | + | कितना अभीप्सु यह प्रांत | |
− | + | अभीप्सित है इसका एकांत | |
− | + | सुरक्षित यहाँ गहन मधुपान | |
− | + | जो कितनी तृषा बढ़ाता है | |
− | + | मिलन का राग जगाता है। | |
− | + | हे, करभोरु! यही समय है | |
− | + | यही घड़ी है, छोड़ो भय | |
− | + | कहो, कमलिनी के पत्ते से | |
− | + | पंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँ | |
− | + | या कहो, तुम्हारे कमल सरिस | |
− | + | इन लाल-लाल चरणों को | |
− | + | अपनी गोद में रख कर | |
− | + | जिस प्रकार सुख मिले दबाऊँ | |
+ | पृथु नितम्ब तक धीरे-धीरे। | ||
− | + | आज चन्द्र शीतल किरणों से | |
− | + | अग्नि-बाण-सा गिरा रहा है | |
− | + | कामदेव फूलों को देखो | |
− | + | वज्र-बाण-सा बना रहा है | |
− | + | खींच रहा है ज्यों कानों तक | |
− | + | फेंक रहा है अनल निरंतर | |
− | + | छोड़ तुम्हारे चरण प्रिये! | |
− | + | अब कहीं नहीं है शरण प्रिये! | |
− | + | ||
− | मैं | + | हे पुष्पप्रिया! तुम अनाघ्रात |
− | + | नख-चिह्न रहित किसलय-जैसी | |
− | + | ना बींधे गए रत्न सम हो | |
− | + | मैं देख रहा हूँ निर्निमेष | |
− | + | तुम ललित पदों की रचना हो | |
− | + | रूप की राशि अनुपमा हो | |
− | + | भौंहें ऊपर उठी हुई हैं | |
− | मुझे | + | और मेरा अनुराग प्रकट में |
+ | छलक रहा हर्षित कपोल पर। | ||
+ | |||
+ | दो शिरीष के पुष्प सुष्ठ | ||
+ | मकरंद सहित डंठल वाले | ||
+ | दोनों कानों में कर्णफूल-से | ||
+ | सजे लटकते गालों तक | ||
+ | अधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फल | ||
+ | खस का लेप उरोजों पर | ||
+ | कमलपत्र आवरण वक्ष पर | ||
+ | कमलनाल का कंगन ऊपर | ||
+ | खींचता बार-बार है दृष्टि | ||
+ | वक्ष का यह कर्षक विस्तार | ||
+ | सहे कैसे यह वल्कल भार। | ||
+ | |||
+ | डाली-सी भुजाएँ हैं कोमल | ||
+ | जैसे है हथेली रक्त कमल | ||
+ | नयनों में हरिणी-सी चितवन | ||
+ | अंगों में फूलों का यौवन | ||
+ | गह्वर त्रिवली में तिरता है | ||
+ | यह कैसा दृष्टि-विहार | ||
+ | कुचों के बीच सुकोमल | ||
+ | शरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार। | ||
+ | |||
+ | आम्रवृक्ष पर चढ़ती है | ||
+ | माधवी लता संगिनि होकर | ||
+ | गिरती है रत्नाकर में ज्यों | ||
+ | महानदी सर्वस्व लुटाकर | ||
+ | वैसे प्रिय! अब भुजा खोल | ||
+ | कर लो धारण वपुमान प्रखर | ||
+ | प्रिय मुझे पिलाओ अधरामृत | ||
+ | हो जाऊँ अमर पीकर छककर। | ||
+ | |||
+ | जैसे मृगशावक को हे, प्रिय! | ||
+ | दोने में कमलिनी-पातों के | ||
+ | निज कर से नीर पिलाती हो | ||
+ | वैसे अधरोष्ठ पत्र करके | ||
+ | सुरतोत्सव का ले सुरा-पात्र | ||
+ | मधु-दान करो अंतर्मन से। | ||
+ | |||
+ | मैं बिंधा काम के बाणों से | ||
+ | तुम समझ रही अन्यथा अभी | ||
+ | जब झुकी सुराही अधरों पर | ||
+ | फिर ना-नकार क्या बात रही! | ||
+ | |||
+ | हो गया आज जब प्रकट प्रेम | ||
+ | जब प्रणय-प्रार्थना है समान | ||
+ | हट गया बीच का पट सारा | ||
+ | ना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग! | ||
+ | |||
+ | राजभवन का चहल-पहल | ||
+ | है कई वल्लभावों से शोभित | ||
+ | किन्तु प्रिये! यह पृथ्वी | ||
+ | और प्राणप्रिये! तुम ही दोनों | ||
+ | कुल की मेरी प्रतिष्ठा हो। | ||
+ | |||
+ | छोड़ो भय, प्रिय! छोड़ो भय | ||
+ | गुरु जन दोष नहीं मानेंगे | ||
+ | पाया जब अनुराग परस्पर | ||
+ | सम हृदयज्ञ का सम आकर्षण | ||
+ | गन्धर्व विवाह कर लिया | ||
+ | बहुत-सी कन्याओं ने | ||
+ | फिर सहमति दे दी मात-पिता ने | ||
+ | बंधु-बांधव, गुरुजन ने। | ||
+ | |||
+ | हे, कामसुधा! इसलिए | ||
+ | नहीं अब छोड़ सकूँगा | ||
+ | छककर क्षाम हुए बिन | ||
+ | नहीं सुधे! अब नहीं, नहीं | ||
+ | यह देह बहुत आकुल है | ||
+ | जैसे भ्रमर पिया करते हैं | ||
+ | इठलाते सुमनों का रस | ||
+ | मदमाते हैं अधर तुम्हारे | ||
+ | दया बहुत आती है इन पर | ||
+ | पीना है अब कुसुम सरीखे | ||
+ | इन अक्षत अधरों का मद | ||
+ | पी-पीकर मदमत्त भ्रमर-सा | ||
+ | भीतर तक धँस जाना है। | ||
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05:27, 7 अगस्त 2015 के समय का अवतरण
अहो, मनोरथ-प्रिया!
नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्त
काम जो मुझे जलाता है
वही है किए तुम्हें संतप्त।
आश्रम में है शान्ति
किन्तु मेरा मन है आक्रान्त
यहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रात
लता-बेलों की सगी बहना
तभी हो नव मल्लिका समान
मधुर यह रूप, मदिर ये नयन
दे गया मुझे नेत्र-निर्वाण।
यही समय है, यही घड़ी है
गाढ़ रूप आलिंगन का प्रिय!
कमल-सुवासित सुखद वायु
मालिनी का तट, यह लताकुंज
कितना अभीप्सु यह प्रांत
अभीप्सित है इसका एकांत
सुरक्षित यहाँ गहन मधुपान
जो कितनी तृषा बढ़ाता है
मिलन का राग जगाता है।
हे, करभोरु! यही समय है
यही घड़ी है, छोड़ो भय
कहो, कमलिनी के पत्ते से
पंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँ
या कहो, तुम्हारे कमल सरिस
इन लाल-लाल चरणों को
अपनी गोद में रख कर
जिस प्रकार सुख मिले दबाऊँ
पृथु नितम्ब तक धीरे-धीरे।
आज चन्द्र शीतल किरणों से
अग्नि-बाण-सा गिरा रहा है
कामदेव फूलों को देखो
वज्र-बाण-सा बना रहा है
खींच रहा है ज्यों कानों तक
फेंक रहा है अनल निरंतर
छोड़ तुम्हारे चरण प्रिये!
अब कहीं नहीं है शरण प्रिये!
हे पुष्पप्रिया! तुम अनाघ्रात
नख-चिह्न रहित किसलय-जैसी
ना बींधे गए रत्न सम हो
मैं देख रहा हूँ निर्निमेष
तुम ललित पदों की रचना हो
रूप की राशि अनुपमा हो
भौंहें ऊपर उठी हुई हैं
और मेरा अनुराग प्रकट में
छलक रहा हर्षित कपोल पर।
दो शिरीष के पुष्प सुष्ठ
मकरंद सहित डंठल वाले
दोनों कानों में कर्णफूल-से
सजे लटकते गालों तक
अधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फल
खस का लेप उरोजों पर
कमलपत्र आवरण वक्ष पर
कमलनाल का कंगन ऊपर
खींचता बार-बार है दृष्टि
वक्ष का यह कर्षक विस्तार
सहे कैसे यह वल्कल भार।
डाली-सी भुजाएँ हैं कोमल
जैसे है हथेली रक्त कमल
नयनों में हरिणी-सी चितवन
अंगों में फूलों का यौवन
गह्वर त्रिवली में तिरता है
यह कैसा दृष्टि-विहार
कुचों के बीच सुकोमल
शरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार।
आम्रवृक्ष पर चढ़ती है
माधवी लता संगिनि होकर
गिरती है रत्नाकर में ज्यों
महानदी सर्वस्व लुटाकर
वैसे प्रिय! अब भुजा खोल
कर लो धारण वपुमान प्रखर
प्रिय मुझे पिलाओ अधरामृत
हो जाऊँ अमर पीकर छककर।
जैसे मृगशावक को हे, प्रिय!
दोने में कमलिनी-पातों के
निज कर से नीर पिलाती हो
वैसे अधरोष्ठ पत्र करके
सुरतोत्सव का ले सुरा-पात्र
मधु-दान करो अंतर्मन से।
मैं बिंधा काम के बाणों से
तुम समझ रही अन्यथा अभी
जब झुकी सुराही अधरों पर
फिर ना-नकार क्या बात रही!
हो गया आज जब प्रकट प्रेम
जब प्रणय-प्रार्थना है समान
हट गया बीच का पट सारा
ना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग!
राजभवन का चहल-पहल
है कई वल्लभावों से शोभित
किन्तु प्रिये! यह पृथ्वी
और प्राणप्रिये! तुम ही दोनों
कुल की मेरी प्रतिष्ठा हो।
छोड़ो भय, प्रिय! छोड़ो भय
गुरु जन दोष नहीं मानेंगे
पाया जब अनुराग परस्पर
सम हृदयज्ञ का सम आकर्षण
गन्धर्व विवाह कर लिया
बहुत-सी कन्याओं ने
फिर सहमति दे दी मात-पिता ने
बंधु-बांधव, गुरुजन ने।
हे, कामसुधा! इसलिए
नहीं अब छोड़ सकूँगा
छककर क्षाम हुए बिन
नहीं सुधे! अब नहीं, नहीं
यह देह बहुत आकुल है
जैसे भ्रमर पिया करते हैं
इठलाते सुमनों का रस
मदमाते हैं अधर तुम्हारे
दया बहुत आती है इन पर
पीना है अब कुसुम सरीखे
इन अक्षत अधरों का मद
पी-पीकर मदमत्त भ्रमर-सा
भीतर तक धँस जाना है।