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"कुछ तो होगा / पृथ्वी पाल रैणा" के अवतरणों में अंतर

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यादों से बात नहीं बनती
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कुछ तो होगा जिसके कारण पेश हैं दुश्वारियाँ
कुछ दर्द निगोड़े ऐसे हैं,
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बेवजह तो ज़िन्दगी में   पेचोख़म होते नहीं।
जीना दूभर कर देते हैं।
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क्या हुआ होगा यहाँ  कि रंगतें निखरी नहीं
सहना भी मुश्किल होता है,
+
उजड़ जाने के लिए तो  हम फ़सल बोते नहीं।
कहकर भी बात नहीं बनती।
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किश्तियाँ मझधार में यों ही पलट जाती रहेंगी
पतझड़ में सूखे पत्तों का
+
नाविकों के हाथ जो    पतवार पर होते नहीं।
कब साथ दिया है पेड़ों ने,
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हो भले बिफरी फिज़ां या तल्ख़ियां हालात में
जो बीत गए उन लम्हों की
+
सध गए जो फिर तवाज़ुन वे कभी खोते नहीं।
यादों से बात नहीं बनती।
+
जब मुहब्बत ही नहीं तो अज़ल से कैसा गिला
जो लडिय़ां बिखर गईं उनके
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गुजऱने पर गैऱ के तो  बेवजह रोते नहीं।
सब मोती जाने किधर गए,
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किससे यह भूल हुई कैसे,
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समझे भी बात नहीं बनती।
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अपने हाथों में जादू था,
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हम सारी उम्र यही समझे,
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बनने से पहले उजड़ गई
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बस्ती से बात नहीं बनती।
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किस सोच में जाने उलझ गए
+
पतवार हाथ से फिसल गई,
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अब टूटी किश्ती को लेकर
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लहरों में बात नहीं बनती।
+
कहने में सुनना भूल गए,
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सब कहा सुना बेकार हुआ।
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आखिर अब बात यहाँ ठहरी,
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कहने से बात नहीं बनती।
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जीवन चाहे जैसा भी हो,
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अपना ही रचा रचाया है,
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अब सिर धुनने से क्या होगा,
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रोने से बात नहीं बनती।
+
जो छूट गया सो छूट गया
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जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ,
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आगे भी जाने क्या होगा,
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चिन्ता से बात नहीं बनती।
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01:31, 5 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

कुछ तो होगा जिसके कारण पेश हैं दुश्वारियाँ
बेवजह तो ज़िन्दगी में पेचोख़म होते नहीं।
क्या हुआ होगा यहाँ कि रंगतें निखरी नहीं
उजड़ जाने के लिए तो हम फ़सल बोते नहीं।
किश्तियाँ मझधार में यों ही पलट जाती रहेंगी
नाविकों के हाथ जो पतवार पर होते नहीं।
हो भले बिफरी फिज़ां या तल्ख़ियां हालात में
सध गए जो फिर तवाज़ुन वे कभी खोते नहीं।
जब मुहब्बत ही नहीं तो अज़ल से कैसा गिला
गुजऱने पर गैऱ के तो बेवजह रोते नहीं।