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03:42, 17 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण

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मेरे अहसासों को भी,
अलफाज का नाम देकर,
मुझपर तौहमतें,
लगाने लगे है लोग l

उजाड. दिया था कभी,
खुद ही जिस बस्ती को,
फिर वहीं पर घर,
बनाने लगे है लोग ।

खुद के दुख से कोई भी,
दुखी नहीं है आज,
जाने फिर क्यों,
दुसरों के सुख से भी,
दुखी रहने लगे है लोग ।

जख्मी कर गए थे कभी,
खुद ही जिस साहिल को,
आज वहीं पर मरहम लिए,
नजर आने लगे हैं लोग ।




समुन्दर का हुनर तो,
जानता है हर कोई,
क्यों फिर पोखर बनके भी,
इतराने लगे हैं लोग ।

महसूस जो,
ना कभी कर पाए,
छलनी हुए पावों का दर्द,
चंद फासले जो तय,
कर गया वो शख्स,
तो फिर क्यों हैरानी,
दिखाने लगे हैं लोग ।

दुनियादारी के स्वांग से परे,
जो जीना चाहे,
अपने ही तरीके से,
स्वाभिमानी उस शख्स को,
अब मगरूर,
कहने लगे हैं लोग ।

अजीब चलन देखा,
दुनिया का यारों,
जो दिखे कि है,
परेशान कोई,
तो सुकून में रहते है लोग l

और जो लगे कि,
है कोई सुकून में,
न जाने क्यों फिर,
खुद का ही,
सुकून गंवाने,
लगे हैं लोग ।