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मैं पावस की सन्ध्या कातर!
उमस में मेरी विह्वलता।
विद्युत में मन मेरा जलता।
किन्तु नयन के कोरों से है
उमड़ रहा करुणा का सागर!
विकल जवानी बेसुध प्यासी।
प्राणों में है घोर उदासी।
गरज-गरज कर रहा मुखर क्यों
आज वेदना मेरी अम्बर?
चीर असीम तिमिर की कारा,
एक दीप मृदु हारा-हारा
क्रूर हवा के झोंकों से बच
पंथ रहा मेरा ज्योतितकर!
कौन सुदूर नदी के तट पर
बैठ फूँकता वंशी में स्वर
सुन जिसको हो रहा शिथिल तन
और हृदय आता मेरा भर!
(10.9.46)