"नाता-रिश्ता / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो <br> | वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो <br> | ||
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(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर <br> | (उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर <br> | ||
:::::अंजलि भरेगी <br> | :::::अंजलि भरेगी <br> | ||
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।) <br> <br> | और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।) <br> <br> | ||
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तुम सदा से <br> | तुम सदा से <br> | ||
वह गान हो जिस की टेक-भर <br> | वह गान हो जिस की टेक-भर <br> | ||
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::हवा के झोंकों के लिए रह गया <br> | ::हवा के झोंकों के लिए रह गया <br> | ||
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं... <br> | पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं... <br> | ||
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केवल मरु का रेत-लदा झोंका <br> | केवल मरु का रेत-लदा झोंका <br> | ||
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और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की <br> | और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की <br> | ||
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इस सधे सन्धि-क्षण में <br> | इस सधे सन्धि-क्षण में <br> | ||
इस नए जनमे, नए जागे, <br> | इस नए जनमे, नए जागे, <br> | ||
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मेरे पुण्यगीत को <br> | मेरे पुण्यगीत को <br> | ||
− | अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने | + | अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो— <br> |
यों अपने को पाने दो! <br> <br> <br> | यों अपने को पाने दो! <br> <br> <br> | ||
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वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो <br> | वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो <br> | ||
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? <br> | और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? <br> | ||
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हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में <br> | हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में <br> | ||
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में <br> | भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में <br> | ||
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बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की <br> | बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की <br> | ||
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में! <br> <br> <br> | दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में! <br> <br> <br> | ||
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− | उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता | + | उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ— <br> |
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ: <br> | उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ: <br> | ||
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में <br> | उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में <br> | ||
− | + | :मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर <br> | |
− | मैं, जो होने में ही अपने को छलता | + | मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ— <br> |
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ! <br> | यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ! <br> |
15:01, 31 मार्च 2008 का अवतरण
तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो—
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है):
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
- भावना का अर्थ—
- भावना का अर्थ—
(वही तो अर्थ सनातन है):
वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो
- धो कर अलग करने में—
- धो कर अलग करने में—
- मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई—
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
- अंजलि भरेगी
- अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)
तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
- हवा के झोंकों के लिए रह गया
- हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं...
यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ
- और तुम हो:
- और तुम हो:
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।
- २
- २
तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो
मौन में लय हो जाने दो:
यहीं
जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है—
यहीं
जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है—
यहीं
जहाँ सब कुछ दीखता है,
और सब रंग सोख लिए गए हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
- लड़खड़ा कर झड़ जाता है।
- ३
- ३
यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नए जनमे, नए जागे,
अपूर्व, अद्वितीय—अभागे
मेरे पुण्यगीत को
अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो—
यों अपने को पाने दो!
- ४
- ४
वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
तीर्थों की पगडण्डियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!
- ५
- ५
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ—
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ:
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
- मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ—
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!