"तौहीद / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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तनहा<ref>अकेला</ref> न उसे अपने दिले तंग में पहचान।
हर बाग़ में, हर दश्त<ref>जंगल</ref> में, हर संग<ref>जंगल</ref> में पहचान॥
बे रंग में, बारंग<ref>रंगीन</ref> में, नेरंग<ref>विभिन्नता</ref> में पहचान।
मंज़िल में, मुक़ामात में, फरसंग<ref>लगभग छह मील का एक माप</ref> में पहचान॥
नित रोम में और हिंद में और जंग<ref>अफ्रीक़ा</ref> में पहचान।
हर राह में हर साथ में, हर संग में पहचान॥
हर अज़्म<ref>श्रेष्ठ इरादा</ref> में, हर आहंग<ref>आवाज़</ref> में पहचान।
हर धूम में, हर सुलह में, हर अंग में पहचान॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥1॥
फल पात कहीं शाख, कहीं फूल, कहीं बेल।
नरगिस कहीं, सोसन कहीं, बेला कहीं राबेल॥
आज़ाद कोई सबसे, किसी का है कहीं मेल।
मलता है कोई राख, चंबेली का कोई तेल॥
करता है कोई जुल्म, तो लेता है कोई झेल।
बांधे कोई तलवार, उठाता है कोई सेल॥
अदना कोई, आला कोई, सूखा कोई, डंड पेल।
जब गौर से देखा, तो उसी के हैं यह सब खेल॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥2॥
गाता है कोई शौक़ में, करता है कोई हाल<ref>सूफियों का मस्ती में नाचना</ref>।
फांके है कोई ख़ाक, उड़ाता है कोई माल॥
हंसता है कोई शाद, किसी का है बुरा हाल।
रोता है कोई होके ग़मो दर्द में पामाल<ref>पददलित, दुखी</ref>॥
नाचे है कोई शोख़, बजाता है कोई ताल।
पहने है कोई चीथड़े ओढ़े है कोई शाल॥
करता है कोई नाज, दिखाता है कोई बाल।
जब ग़ौर से देखा तो उसी की है यह सब चाल॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥3॥
जाता है हरम<ref>काबा, खुदा का घर</ref> में, कोई कु़रआन बग़ल मार।
कहता है कोई दौर<ref>मन्दिर</ref> में पोथी के समाचार॥
पहुंचा है कोई पार, भटकता है कोई वार।
बैठा है कोई ऐश में, फिरता है कोई ज़ार॥
आजिज़<ref>विवश</ref> कोई, बेबस कोई, जालिम कोई लठमार।
मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> कोई नाचार तवांगर<ref>धनी</ref> कोई जरदार<ref>धनी</ref>॥
जख़्मी कोई, माँदा कोई, अच्छा कोई बदकार।
जब ग़ौर से देखा, तो उसी के हैं सब असरार<ref>रहस्य</ref>॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥4॥
है कोई दिली दोस्त, कोई जान का दुश्मन।
बैठा है पहाड़ों में, कोई फिरता है बन बन॥
माला कोई जपता है, कोई शौक़ं में सुमिरन।
छोड़े है कोई माल समेटे है कोई धन॥
निकले हैं जवाहर के कोई पहन के अबरन।
लोटे है कोई ख़ाक में रो-रो के मिला तन॥
जोगी कोई, भोगी कोई, सोगी कोई, सोहगन।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं यह सब फ़न॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥5॥
सर्दी कहीं, गर्मी कहीं, जाड़ा कहीं, बरसात।
दोज़ख कहीं बैकुंठ कहीं बर्ज़ो समावात<ref>जमीन, आसमान</ref>॥
हूरें कहीं, गुल्मां कहीं, परियां कहीं जिन्नात।
ऊजड़ कहीं, बस्ती कहीं, जंगल कहीं देहात॥
सख़्ती कहीं, राहत कहीं, गर्दिश<ref>घूमना, दुर्भाग्य</ref> कहीं सकनात<ref>ठहरना, चैन</ref>।
शादी कहीं, मातम, कहीं, नूर और कहीं जुल्मात॥
तारे कहीं सूरज कहीं बुर्ज और कहीं दिन-रात।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं तिलिस्मात<ref>जादू</ref>॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥6॥
बेचे हैं जवाहर कोई ज़र सीमो तिला रांग।
मारे कोई पारे को बनाये कोई मिरगांग॥
देता है कोई हाथ से, लेता है कोई मांग।
मोहताज कोई कु़व्वत का, रखता है कोई दांग॥
ठहरा है कोई चोर, लगाता है कोई थांग।
मलता है कोई पोस्त को, छाने है कोई भांग॥
घंटा है कहीं झांझ, कहीं संख कहीं बांग।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं यह सब स्वांग॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥7॥
नारी कोई बाँदी, कोई ख़ाकी कोई आबी।
सूफ़ी कोई जाहिद कोई मदमस्त शराबी॥
बातें कोई बैठा हुआ, करता है किताबी।
पीता है कोई कैफ़, कोई मै की गुलाबी॥
मारेहै ज़टल कोई कहीं जेब है दाबी।
सच्चा कोई झूठा है कोई रिंद ख़राबी॥
काला कोई गोरा, कोई पीला कोई आबी।
हैं उसकी ही कु़दरत के यह सब लाल गुलाबी॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥8॥
क्या हुस्न कहीं पाया है, अल्लाह ही अल्लाह!।
क्या इश्क़ कहीं छाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या रंग यह रंगवाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या नूर यह झमकाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या मेहर है क्या माया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
क्या ठाठ यह ठहराया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
क्या भेद ”नज़ीर“ आया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥9॥