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"जाग उठी चुभन / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर

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‘परिन्दे कब लौटे’ इसके पीछे एक बहुत बड़ी दु:खद कहानी है। यह आपको मेरी अगली पुस्तक में पढ़ने को ही मिल पाएगी ।आपका क्या विचार है इस पर? क्या परिंदे कभी लौट पाते हैं या कभी भी नहीं लौट पाते?आशा है। मेरी अन्य कृतियों की तरह आप सभी का भरपूर स्नेह इस कृति को भी मिल पाएगा।
 
‘परिन्दे कब लौटे’ इसके पीछे एक बहुत बड़ी दु:खद कहानी है। यह आपको मेरी अगली पुस्तक में पढ़ने को ही मिल पाएगी ।आपका क्या विचार है इस पर? क्या परिंदे कभी लौट पाते हैं या कभी भी नहीं लौट पाते?आशा है। मेरी अन्य कृतियों की तरह आप सभी का भरपूर स्नेह इस कृति को भी मिल पाएगा।
 
डॉ० भावना कुँअर
 
डॉ० भावना कुँअर
सिडनी
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सिडनी<poem>

16:54, 22 मार्च 2016 का अवतरण

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परिन्दे कब लौटे !
मन के किसी कोने में गहन –घटा –सा कुछ जब घुमड़ने लगता है, तो एक ऐसी स्थिति बनती है कि हम अवश हो जाते हैं। वह घुमड़ती घटा रोके नहीं रुकती, बरस पड़ती है। मन की सन्तप्त धरा भीग जाती है और नई रचना का उदय होता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ है। योजना बनाकर लिखना मुझसे नहीं हो सका । जब मन में कुछ घुमड़ता है, तभी कोई रचना आकार लेती है।
जैसा कि मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि हाइकु मेरी सबसे प्रिय विधा है।मेरे हाइकु संग्रह-‘तारों की चूनर’, ‘धूप के खरगोश’ के बाद मेरी लेखनी ने रुख किया ताँका,सेदोका,माहिया और चोका की ओर ।मुझे यह कहते हुए जरा भी संकोच नहीं है कि इन चारों विधाओं से मुझे बड़े भाई काम्बोज जी ने ही अवगत कराया मैंने काफी कुछ लिखा इन विधाओं पर ; लेखन की प्रेरणा सदा की तरह ही बड़े भाई काम्बोज जी, आदरणीय सुधा जी,पिताश्री चन्द्रबली शर्मा, माता जी सावित्री देवी, जीवन साथी प्रगीत मेरी प्यारी-प्यारी बेटियाँ काव्या और ऐश्वर्या रहीं हैं।र मेरे भाई और बहन भी मुझ पर गर्व करते हैं; मेरे लेखन को पसन्द करते हैं।
सेदोका पर मेरी नई पुस्तक "जाग उठी चुभन" 2015 में आई, उसी दौरान ताँका माहिया और चोका भी जोर-शोर से लिखे जाने लगे ।माहिया पर काम्बोज जी हरदीप और मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘पीर-भरा दरिया’ आ रही है।
एक दिन ऐसे ही मैं देखने बैठी कि देखते हैं कितने चोका हुए हैं; तो देखा कि एक पूरी पुस्तक निकाली जा सकती है ।इस सोच को आगे बढ़ाया और तीन हफ्ते में इसने पुस्तक का रूप ले लिया। इसमें बड़े भाई काम्बोज जी ने मेरा साथ दिया। पुस्तक की त्रुटियों को बहुत बारीकी से टटोलकर मुझे अवगत कराया। शीर्षक सुझाया, मुखपृष्ठ पर चर्चा हुई और हो गई पुस्तक तैयार। सूद जी के बिना पुस्तक निकालने का काम कभी भी पूरा ही हो नहीं सकता इन दोनों का हृदय से आभार व्य्क्त करती हूँ।
चोका लिखना मुझे मेरे हाइकु की ही तरह प्रिय लगा पाँच -सात -पाँच सात पाँच... आप तब तक लिखते जाइये जब तक आपके भाव आपका साथ देते हैं और फिर एक ताँका जोड़िए या अन्त में सात वर्णों की एक अतिरिक्त पंक्ति से चोका का समापन कीजिए ;किन्तु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि विधा चाहे कोई भी उसमें भाव होने चाहिए। शब्दों को उठाकर पिटारा भर देना काव्य नहीं है बहुत सूझबूझ के साथ किसी भी विधा का निर्वाह करना ही सच्चा और सफल लेखन बनता है।
काम्बोज जी और मैंने डॉ हरदीप सन्धु के साथ एक चोका संग्रह ‘उजास साथ रखना’ का संपादन 2013 में किया, मैंने तब चोका लिखने शुरू किए और क्रम अभी तक जारी है।
इस बीच बहुत कुछ घटा । बहुत से उतार -चढ़ाव देखे बहुत कुछ खोया ,तो थोड़ा बहुत पाया भी।भले ही पाने की मात्रा कम और खोने की ज्यादा रही हो ;पर ज़िन्दगी से हार नहीं मानी ।कुछ पल ऐसे भी आए ,जब बहुत अकेलापन झेला ;पर फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ी, छोड़नी भी नहीं चाहिए । इतना कुछ बीता कि कई जन्म लग जाएँ लिखते-लिखते ;पर लेखन समाप्त न हो। इतना ही नहीं आस पास का माहौल,घटनाओं ने जो भी दिया ,सभी को अपनी लेखनी से बाँधने का प्रयास किया है।अच्छे-बुरे,खट्टे-मीठे सभी अनुभव आपको इस संग्रह में पढने को मिलेंगे । मेरे भाव केवल मेरे ही नहीं ,आपके भी हो सकते हैं; देशकाल की सीमा से परे किसी के भी हो सकते हैं। मेरी ये अनुभूतियाँ आप तक पहुँच जाएँ; तो मैं अपना रचना-कर्म सफल समझूँगी ।अगर कहीं त्रुटियाँ हुई हो उनके लिए पहले से माफी माँगना चाहूँगी।
‘परिन्दे कब लौटे’ इसके पीछे एक बहुत बड़ी दु:खद कहानी है। यह आपको मेरी अगली पुस्तक में पढ़ने को ही मिल पाएगी ।आपका क्या विचार है इस पर? क्या परिंदे कभी लौट पाते हैं या कभी भी नहीं लौट पाते?आशा है। मेरी अन्य कृतियों की तरह आप सभी का भरपूर स्नेह इस कृति को भी मिल पाएगा।
डॉ० भावना कुँअर

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