"समर्पण / अनिरुद्ध प्रसाद विमल" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध प्रसाद विमल |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:43, 24 मई 2016 के समय का अवतरण
पिया-
बड़ी इच्छा छै
चाहै छियै
साँझ होय सें पैन्हैं
तोरॅ माँगलॅ ऊ शाम तोरा दै दियौं।
आबॅ हमरॅ साँवरॅ रूप रॅ प्यासलॅ प्रीतम
आरो समेटी लेॅ हमरा
आपनॅ मजबूत बाँहीं में
हों-हों बाँधी लेॅ हमेशा-हमेशा लेली
आपनॅ कठोर भुज-बन्धन में।
हमरॅ तेजी सें चली रहलॅ ई साँस
तोरॅ साँसॅ सें मिली जाय
देहॅ सें देह
मनॅ सें मॅन
बजी उठेॅ प्राणॅ रॅ तारे-तार।
हवा सें खेली रहलॅ
करूवा नाग नांकी फन काढ़लें
हमरॅ ई कारॅ केश रॅ गुच्छा
खुली केॅ बिखरी जाय लेॅ चाहै छै
चारो तरफॅ सें घेरी लै लेॅ चाहै छै
कि समेटी लै लेॅ चाहै छै
तोरा ठीक-ठीक पूरा आपनॅ भीतर।
प्राण!
आय हम्में मेघ-बूँद बनी केॅ
तोरॅ धरती रं देहॅ में
आपना केॅ समाय दै लेॅ चाहै छियै
मिलाय दै लेॅ चाहै छियै
धूरा आरो पानी नांकी।
आबॅ हमरा नामॅ के बाबला हमरॅ मीत
हमरॅ अधमुंदलॅ-अलसैलॅ पलकॅ के फड़की रहलॅ-
आगिन नांकी दहकी रहलॅ ठोरॅ के संकेत समझॅ पिया
पगलाय गेलॅ छी हम्में
बौराय गेलॅ छी हम्में।
चारो तरफ देखॅ
प्रकृति के अंग-अंग भी सिहरी रहलॅ छै
कि भरी गेलॅ छै हमरे समर्पण भाव सें।
यै मेघॅ केॅ देखॅ प्रीतम
कतना ई बौराय गेलॅ छै
कि दौड़ेॅ लागलॅ छै
सरंगॅ के छाती पर
काम रूप शिव नांकी
तांडव-नृत्य के मुद्रा में
हिमालय के बेटी रॅ तपस्या केॅ फेरू सें पूरा करै लेली
ओकरा देहॅ से लिपटै लेली
धरती पर बरसै लेली
ओकरॅ प्यास बुझाबै लेली।
आरो यै रं में भला तोंही कहॅ
हमरा तोहरॅ याद केना नै आबै?
हन्नें देखॅ
बरसाती उल्लर हवा के झटका खाय केॅ
-कॅ रं लचकेॅ लागलॅ छै
गाछॅ के ठार
एक-दोसरा केॅ गल्ला सें लगाबै लेली।
ऐन्हाँ में हमरॅ सुतलॅ इच्छा के अचानक जागी जाना
की स्वाभाविक नै छै हमरॅ मीत?
आय तोरा
आबै लेॅ पड़थौं
आय तोरा छाती पर
आपनॅ माथा टेकी केॅ
सुती जाय लेॅ चाहै छियै हम्में
तब तांय लेली
जब तांय तोरॅ आलिंगन के कठोरता
हमरॅ शिथिलता केॅ तोड़ी केॅ जगाय नै दै छै।
मीत हमरॅ!
हमरा कस्सी केॅ बाँधॅ
हमरॅ रोम-रोम बाजेॅ लागलॅ छै
बांस वन के सिसकारी नांकी
चंदन के डारी पर नेठुआय केॅ बैठलॅ साँपे नांकी
स्वर्गॅ के पारिजात पुष्प नांकी हमरॅ ई देह
नै जानौ कोन अनचिन्हलॅ स्वर्गीय छुवन सें
बेसुध होलॅ चललॅ जाय रहलॅ छै।
आबॅ देखॅ पिया
जेठॅ के ई गरमैलॅ धरती
आकाश के बरसैलॅ रिमझिम बूँद के फुहार पाबी केॅ
कतना शांत होय गेलॅ छै।
आबॅे हवा के सिहराय दै वाला स्पर्श
नै सहलॅ जाय छै हमरॅ मीत
अखनी तुरंत हवा ने
लाजॅ सें लाल-टुभुक होय गेलॅ हमरा ठोरॅ के
चुम्मा लै लेलकै
आरो हम्में सिहरी गेलियै
आखिर कैन्ह नी
ई हवा तोरा घरॅ के तरफॅ सें जे आबै छै।
आय फेरू एक बार
बितला सालॅ नांकी
नदी के उपनलॅ वेगॅ नांकी
उमड़तेॅ धारॅ में
कूदी जाय लेॅ चाहै छियै
वे पार जाय लेली
पाबै लॅे चाहै छियै ऊ सुक्खॅ केॅ
जे पानी में ढुकी केॅ हपरा मिललॅ छेलै
सच कहै छियौं मीत हमरॅ!
तोरा सें मिलै के बेसुधी में
हम्में जेन्हैं पानी में धोंस देलियै
तेॅ हमरा लागलै
हम्में पानी में नै
बल्कि तोहरे मजबूत सुख दै वाला बाँही में
समाय गेली रहौं
आरो नदी के धारा नें हमरा
वहेॅ रं उठाय लेलेॅ छेलै
जेनां केॅ तोंय उठाय लै छेलौ हमरा
समेटी केॅ अपना हथेली पर।