"जीवन-लय / देवेन्द्र आर्य" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र आर्य }} {{KKCatNavgeet}} <poem> दिल्ली...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatNavgeet}} | {{KKCatNavgeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | घर हो या मौसम | |
− | + | कुदाल या कविताएँ | |
+ | लय टूटी तो सब के सब घायल होंगे। | ||
− | + | जीवन से उलीच के जीवन को भरती | |
− | + | कविता उन्मुख और विमुख दोनों करती | |
− | + | अगर न रोपे गए करीने से पौधे | |
− | + | हरे-भरे तो होंगे | |
− | + | पर जंगल होंगे। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ताल-छन्द | |
− | + | ध्वनियों शब्दों की आवृत्तियाँ | |
− | + | सुर में भी होती हैं अक्सर विकृतियाँ | |
− | + | कोल्हू-सा चलना तो लय हो सकता है | |
+ | लकिन उसमें जुते बैल की स्मृतियाँ ! | ||
− | + | कविता का विकल्प सिर्फ़ कविता होती | |
− | + | मौसम वही कि जिसकी प्यास नहीं मरती | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | चाहे जितना ‘आज’ हो गए हों लकिन | |
− | + | हम उतना ही बचेंगे जितना ‘कल’ होंगे। | |
− | + | ||
− | + | फल चमकती है कुदाल की सपनें में | |
+ | घर ख़ुद ही परिभाषित होता अपने में | ||
+ | लय का रख-रखाव आवश्यक होता है | ||
+ | मन के भीतर कविताओं के छपने में | ||
+ | |||
+ | कविता में संकोच और रिश्तों में लय | ||
+ | आरोहों-अवरोहों का ही नाम समय | ||
+ | ग़म | ||
+ | मरहम | ||
+ | लहजे का ख़म और कम से कम | ||
+ | बातों में हो दम तो सब कायल होंगे। | ||
+ | |||
+ | हम इस पार रहे उस पार रही कविता | ||
+ | कविता के भीतर ही हार रही कविता | ||
+ | ख़तरों का भय | ||
+ | यानी लय अनदेखा कर | ||
+ | अपने पॉव कुल्हाड़ी मार रही कविता | ||
+ | |||
+ | सामन्ती कविताओं | ||
+ | कवि-सामन्तों से | ||
+ | बचना होगा कविता को श्रीमन्तों से | ||
+ | जीवन की गति | ||
+ | संगति में हो, प्रसरित हो | ||
+ | तभी प्रश्न कविताओं के भी हल होंगे। | ||
<poem> | <poem> |
11:18, 30 मई 2016 के समय का अवतरण
घर हो या मौसम
कुदाल या कविताएँ
लय टूटी तो सब के सब घायल होंगे।
जीवन से उलीच के जीवन को भरती
कविता उन्मुख और विमुख दोनों करती
अगर न रोपे गए करीने से पौधे
हरे-भरे तो होंगे
पर जंगल होंगे।
ताल-छन्द
ध्वनियों शब्दों की आवृत्तियाँ
सुर में भी होती हैं अक्सर विकृतियाँ
कोल्हू-सा चलना तो लय हो सकता है
लकिन उसमें जुते बैल की स्मृतियाँ !
कविता का विकल्प सिर्फ़ कविता होती
मौसम वही कि जिसकी प्यास नहीं मरती
चाहे जितना ‘आज’ हो गए हों लकिन
हम उतना ही बचेंगे जितना ‘कल’ होंगे।
फल चमकती है कुदाल की सपनें में
घर ख़ुद ही परिभाषित होता अपने में
लय का रख-रखाव आवश्यक होता है
मन के भीतर कविताओं के छपने में
कविता में संकोच और रिश्तों में लय
आरोहों-अवरोहों का ही नाम समय
ग़म
मरहम
लहजे का ख़म और कम से कम
बातों में हो दम तो सब कायल होंगे।
हम इस पार रहे उस पार रही कविता
कविता के भीतर ही हार रही कविता
ख़तरों का भय
यानी लय अनदेखा कर
अपने पॉव कुल्हाड़ी मार रही कविता
सामन्ती कविताओं
कवि-सामन्तों से
बचना होगा कविता को श्रीमन्तों से
जीवन की गति
संगति में हो, प्रसरित हो
तभी प्रश्न कविताओं के भी हल होंगे।