"देहरी पर मरी माँ / शैलेन्द्र चौहान" के अवतरणों में अंतर
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याद करने को कहो
तो
कुछ भी याद नहीं
यद्यपि बीते
पैंतीस साल
मैंने देखा
माँ को
मरते हुए
मेरे लिए
हम लोगों के लिए
पाँच भाई-बहिनों
के लिए
दिन-रात
पेट काटकर
करते जीवन-संघर्ष
दादी भी
जिं़दा थीं तब
मैं रोया मारने पर
बहुत माँ के एक दिन
वह पढ़ा रही थीं जब
मैं बोला
दादी से
तुम्हारा कलेजा
नहीं फट गया
माँ ने मारा मुझे
रोका नहीं, चुपाया भी नहीं
दादी हँसी थीं बहुत
इस बात को
याद करती रहीं
बहुत दिनों तक
माँ रहने लगीं
गाँव में
दादी ने कहा था
जान अपनी
देहरी पर ही देना
उन्होंने वही किया
जीते-जी दादी भी
नहीं गई गाँव छोड़कर
विधवा होने के बाद भी
डटी रहीं देहरी पर
वही सीख
उन्होंने बहू को भी दी
पिता जी भी
नहीं टाल सके
अपनी माँ की बात
और मेरी माँ
गाँव में बसीं
तो ऐसी बसीं
नहीं निकलीं
मौत से पहले
वाक़या
उस दिन का
न आसमान फटा
न धँसी धरती
रामायण के ऊपर
मिट्टी के तेल का
‘दिया’ रख
पढ़ती थीं शायद
चौपाई
या
दोहा
पता नहीं क्या...पर
भगवान रामचंद्र जी ने भी
सहारा न दिया
लगी आग
चल बसीं वह
बारह घंटे
सहती अनंत व्यथा दाह की
बोलीं जुबान से
कुछ नहीं
कुछ भी नहीं
अपने आप में
जज़्ब कर ली
माँ ने सारी पीड़ा
क्या इतना सहनशील
कोई और होता है
माँ के अलावा?
उस वक़्त कोई नहीं था
उनके पास
जिनके लिए
वह डटी रहीं
देहरी पर
न मैं,
न पिता, न भाई
देहरी...
देहरी भी क्या
न सोने की न चाँदी की
लोहे की भी नहीं
सड़ी हुई
आम या नीम की
लकड़ी की
गाँववालों ने
बहुत कोशिशें कीं
छोड़ दें वह देहरी
पर वह भी थीं
धुन की पक्की
ज़िद्दी बहुत
दूध लेने आता था
दुधिया आन गाँव से
भैंस पालती थीं माँ
कुट्टी काटतीं
भैंस का गोबर
सानी-पानी
और घर का
शरीर तोडू काम
गेहूँ, चावल
रखन, कूटना, छानना
सब करतीं
अकेली वे
खाना-खुराक
एक-डेढ़ रोटी दोपहर में
और रात की बची
बासी रोटी
सुबह खातीं
बिना सब्ज़ी के
हाँ, चाय पीती थीं
बहुत
नाम के लिए पड़ा
रहता था दूध
यह शौक लगा था उन्हें
पिता जी के साथ रहते-रहते
दूध की बात थी
बारह आने सेर
बिकता था तब
और दूधिया वही दूध
बेचता मिलाकर पानी
बाज़ार में
डेढ़ रुपए सेर
छह आने बचे थे
दुधिया पर
हिसाब से
माँ की मेहनत
और छह आने
सिहर गया मैं
काँपने लगा
गुस्से से
दूधिया छह आने
नहीं देगा...
माँ पहनतीं फटी धोती
बावजूद
पिता थे नौकर
आँत की टीबी हुई
किसी से नहीं कहा
उन्होंने
जब तक
सह सकीं पीड़ा
पर असह्य पीड़ा
छुप न सकी मुझ से
दादी भी नहीं रही थीं
तब तक
कि समझ लेतीं
उनकी बिथा
नीम-हकीमों का इलाज
मर्ज़ बढ़ता रहा
पैसे भी नहीं थे
उनके पास
सब लगा देतीं
खेती के काम में
कभी खाद
कभी सिंचाई
बटाई पर थी
खेती
वह नहीं समझती थीं
खेती का अर्थशास्त्र
जितना अनाज
होता
शायद उससे ज्यादा
खर्च होता
और, दिनों-दिन
गलता उनका शरीर
बट्टे में
मैंने कहा-माँ
तुम्हें हम लोगों के लिए
जीना होगा
हम छोटे हैं
हमें कौन सँभालेगा
बड़ी मुश्किल से
वह तैयार हुई
शहर में इलाज के लिए
मैं बहुत लड़ा
बहुत कहा-सुना
तब उनका
आखि़री गहना
सोने की चेन
बेच दी मैंने
बड़े अरमान से
उन्होंने रखी थी वह
अपनी बहू की
मुँह-दिखाई के लिए
मैंने कहा
जब तुम ही न रहोगी
तब अरमान कैसे
पूरे होंगे?
बाद को भैंस भी
हटा दी मैंने
खूँटा खाली हो गया
उनका दिल
भर आया होगा कितना
मैं सिर्फ
सोच सकता हूँ
पर यह ज़रूरी था
उनके जिंदा रहने के लिए
उन्हें जी-तोड़ मेहनत से
अलग करने के लिए
स्वास्थ्य सँभला
उन्हें खटकती रही कमी हमेशा
एक भैंस की
हम लोग छुट्टियों में आएँगे घर
तो दूध-घी कैसे होगा...?
घर के सामने
चबूतरे पर बैठी
कंडे थापती
निहारती रहतीं ‘बस’
कब उतर जाएँ हम लोग
मेहनत के बाद
उनकी जिं़दगी का
दूसरा रूप था-
प्रतीक्षा
मुन्ना कब आएगा
होली, दीवाली, दशहरा
मैं बड़ा हुआ
नौकरी भी की
और शादी-
पिताजी
कभी व्यावहारिक न रहे
न आगे की सोची कभी
माँ सोचती थीं, बहुत आगे की
हम लोगों का भविष्य
सदा आँखों में रहता उनकी
अपनी शादी में
मैंने उन्हें
नाराज कर दिया
पिता की
गैर-समझी-बूझी बातें
शादी के बाद
रहने के लिए
मात्र एक कमरा
जिसमें हम चार लोग
मैं, पिता, भाई
और अब मेरी पत्नी भी
मुझे इस बात से
झुँझलाहट थी
माँ लौटी
विदिशा से
वापस गाँव
दुखी, क्षुब्ध
मैं आहत हुआ
दरअसल
माँ
गाँव की थीं
गाँव-जैसी ही थीं
गाँव के लिए थीं
मैंने भी कभी नहीं चाहा
कि वह हमारे साथ रहें
उनकी बातें
भाषा
और उनकी सोच
एकदम देहाती
मेरी पटरी
उनसे बैठती नहीं थी
उनका अतुल स्नेह
वह भी मुझे
असह्य होता
अक्सर
मैं झुँझलाया करता
उन पर
गाँव छोड़ने को कहता
पर उन्हें याद रहती सदा
अपनी सास की नसीहत
और हम लोगों का
भविष्य
उनका चाहे कुछ हो
और होगा क्या
वे जानती थीं
उन्हें मरना है गाँव में
और मौत
उनकी सहचरी
बन चुकी थी
गाँववाले
सताते उन्हें
वह हम लोगों को
चिट्ठियाँ लिख
आगाह करतीं-
‘गाँव की हालत
अच्छी नहीं है
अभी गाँव मत आना’
माँ नहीं रहीं
मैं विचलित
नहीं हुआ
पर लगा
माँ नहीं रहीं
वह गाँव कीरतपुर
वहाँ कुछ भी नहीं रहा अपना
न राग
न द्वेष
माँ को
कंधा दे
रख दिया चिता पर
धू-धू...
जल गईं माँ
माँ और श्रम
वे माँ से अधिक
एक श्रमिक थीं
मैं यह कभी न
भूल पाऊँगा
कभी नहीं।