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बोलै छै कुछ लोग पुरानोॅ, घी खैलेॅ रुपिया सेर।
दू आना में लागै छेलोॅ, ऐंगना में तरकारी ढेर॥
दू रुपिया जोड़ा धोती-साड़ी आबै छेलै बारीक।
रहै कहाँ अन्याय कथू में, काम चलै छेलै सब ठीक॥
लोगो सब नै दुबरोॅ छेलै, सब के सुन्दर रहै विचार।
कोय कथीलेॅ करतोॅ कहियो, बेटा बेटी के व्यापार॥
एतना तेॅ मानैलेॅ होथौं काल सदा सें छै बलवान।
यें छोड़ेॅ केखरै नै कहियो, मूर्ख रहोॅ या सुभग सुजान॥
देखै छी बिनास के छाया, हम्में मड़राबै छै आज।
बनस्पती तक बचतै नै उमतैतै जखनी मनुज-समाज॥
धरती के उर्बरा सक्ति, देखै छी भेॅ गेलोॅ छै छीन।
बिग्यानै के बल पर खेती-बारी छै, लेकिन स्त्रीहीन॥
अन्नोॅ में सर फोॅल-फलेरी में खोजोॅ छौं पिछला स्वाद?
होथौं कहाँ? जहाँ धरती केॅ देभौं तों यूरिया के खाद॥
आबादी कोन्हूं हालत में, घटतै नै; बढ़तै जइतै।
बेकारी के विसम समस्या भारी उलझैले जैतै॥
पढ़लोॅ लिखलोॅ ग्यानी मानी सब होवे करतै मजबूर।
बेकारी की नै करबैतै, चिन्तन सें योही छै दूर॥
बोलैछै कुछ लोग कि बिग्यानैं करतै सब के उद्धार।
लेकिन हम्में देखै छी, विग्यानै सें होतै संहार॥
बिग्यानों के एक तरफ, झंडा चानों पर फहरै छै।
दोसरा तरफ यहाँ धरती पर, पल-पल अनुबम घहरै छै॥
आबेॅ तेां सोचै छोॅ की हो? ऊ दिन की लौटी ऐथौं?
अरे आज जेकरा देखै छौ, बोहो काल चल्ले जैथौं॥
जे गेलोॅ से चल्ले गेलोॅ लौटी केॅ के आबै छै?
एक कहानी-भर छोड़ै छै, ओकरे याद दिलाबै छै॥
आज तुरत कल में बदली केॅ, होथौ बर्ष हजार-हजार।
सप्ता, पखवारोॅ, मासोॅ के, कहाँ रहै छै धार-बिचार॥
कतनों कोड़ोॅ कतनों सींचोॅ या ओकरा देॅ कतनों खाद।
लेकिन पतझड़ केॅ सूझैछै एक निरासावाद॥
ज्ञान-गुमान देखाबोॅ तब तक, जब तक छौं देह में तेज।
पिल्लू-माकड़ी तक नै पुछथौं, जखनी होय जैभेॅ निस्तेज॥
भूत बड़ा रंगीन सुनै छी, सुनला के विस्वासे की?
वर्त्तमान संकट में छौं तेॅ, छौं भविस्य के आसे की?