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149.
सुरंग रंग साँवला मैनू मोहे, जमुना किनारे कदमदी छहियाँ पानदी विरियाँ चाखँदावे।
ना ले छैल लाल पट काछे, विहसि विहसि गले आखँदा वे॥
तबते जित्थे जित्थे ही जाँदी, तित्थे तित्थे दरसावे॥
मोहन सोहन गोहन दुरक्ष, सोते रैन जागदा वे॥
मो मन मानो रूप तुसानूँ, नेक न इत उत जाँदा वे।
कुलदा काज लाज गुरु जनदी, भोग भवन विसरांदा वे॥
लाख लब्मिये लाहिरदी वानी, जानी यार सुनाँदावे।
हिये हरष दा घन वरषंदा, धरनी जन मन भँदावै॥1॥
150.
रावला जू मेरे मन माना।
काय कदमपर कान्हर वसिया, गुरुके शब्द पहिचाना।
वार2 सुनि टेर मुरलि की, वल बुधि ज्ञान हराना॥
अब लगि भवन रह्यो अधियारो, अब गुरु दीपक आना।
तेहि उँजियार मुरति छवि निरखोँ, को करि सकै बखाना॥
निसिवासर मोहि कल न परत है, खूब न लागत खाना।
विलपति विलखि विकल मुख बोलति, डोलति दरद दिवाना॥
धरनी दीन अधीन तिहारो, लीन भवो ललचाना।
तू जनि जाहु मनिक तन मनते, जाउ निकलि वरु प्राना॥
151.
समुझि नर अंत समय पछताई।टेक।
देह के ताप तपै निसिवासर, माति विषय विष खाई।
काल कलापिजब जाल बझाओ, विसरी सब चतुराई॥
तब मन छिनु द्वंद वियाथै, कछुव न करयो उपाई।
जन धन जानि जनम जग नासो, राम-सुयश नहि गाई॥
जो बड़ हितू सोई तन जारै, छार नदी बहलाई।
जीव कर्म बंधन के बाँधो, चौरासी भरमाई॥
करि परपंच मूख नर बौरे, जगसोँ जोरि सगाई।
धरनी कोइ कोइ पार पहुँचे, हरि चरनन चित लाई॥