भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मारु / शब्द प्रकाश / धरनीदास" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:45, 21 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
175.
योगि एक सत गुरु शब्द लखावल हो।
जिन योगि भवन गुफा मठ मांतर जगजग जोती हो।
वाहि जो जोति स्रवंत सदा मनि मोती हो।
उहै मोति हरिजन हंस अहार,
सेहुरे हंस विरले बसहि संसार।
धरनि हरषि हिय हरि-गुन गावल हो॥1॥
176.
मनुष जनम अस, परम पदारथ हो।
सेहु जनि खोवहु, अंध अकारथ हो।
कर्ण कहाँ, दुर्योधन, भीम, व पारथ हो॥
जिन अस कियउ कठिन मह-भारत हो।
दिनचारी चेतहु चित्तहिं परमारथ हो॥
बिनु एक राम जिवन धन कछु नहि स्वारथ हो।
धरनि समुझि हिय कहत यथारथ हो॥2॥