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साँझुक कथा कहब की सजनी,
सुन्न छली ई कर राती।
दिपली दियठि पर औन्हल छल
ने छल तेल आ ने बाती॥
सीमन्तक सिन्दूरक रेखा
सँ छी हम भगमन्ती,
हाथक दू लहठीसँ होइछ
सधवा मे नित गनती।
हुनकर ई चेन्हक संबलसँ
छी निश्चय अहिबाती॥
की हम कोनो सोहागिनकें
कहने छलियैक निरासी,
तें हमरा जीवन पुनिमक तिथि
मे अछि सघन उदासी।
हमर मनोरथ बिलटि रहल अछि
कोन चूक केर साती॥
काजर सनक अबै छथि सन्ध्या
टिकुली सनक पराते,
हमरे मनक कपूर उड़ाबय
नहुँ नहुँ सिहकि बसाते।
भेटल समदिया हमरा नहि ओ
लिखलन्हि दुइयो पाँती॥
हमरे मनक विषाद पसरि कय
भेल नभक घन कारी,
घर-आङन सब तरि बरिसल जल
भीजल सौंसे साड़ी।
झाँझर चारक चुइल भीत सन
सहलै हमरो छाती॥
(रचना वर्ष १९५८)